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________________ उदायन राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् बना हुआ संपूर्ण महल हमारा है। तुम हमारे लिये ही इतना कष्ट उठाकर यहाँ आये हो। पर तुम मनुष्य देह में हो और हम देवियाँ हैं। मनुष्य से देवियों का संबंध कैसे हो सकता है? अतः तुम पुनः अपने नगर में जाकर हमारे लिये अग्नि प्रवेश आदि कुछ ऐसा कार्य करो, जिससे अगले भव में हम दोनों के पति बन सको। उसने कहा कि इस विशाल दुस्तर समुद्र को तैरकर अथवा लांघकर जाने में मैं समर्थ नहीं हूँ। तब उन दोनों देवियों द्वारा उसे हंस की तरह अपने करकमलों में ग्रहण करके क्षणार्ध में ही उसके घर के उद्यान में छोड़ दिया गया। उसे वहाँ देखकर सभी विस्मित रह गये। उसकी कुशल क्षेम पूछा और कहा कि तुम कहाँ से आये हो? तब उसने जो कुछ देखा था, वह सब कुछ परिजनों को बताया और हासा-प्रहासा देवियों का एकाग्र मन से ध्यान करके उन्हें सब कुछ दिखाया। लोग कहने लगे कि हमें भी यह अदृष्ट पंचशैल द्वीप वहाँ जाकर देखना चाहिए। कुमार नन्दी ने महादान देकर. उन प्रियाओं का मन में ध्यान धरकर, चिता रचकर उस में अग्नि साधन जुटाया। उसी समय उसका प्रिय मित्र नागिल वहाँ आया और बोला - स्त्रियों में मोहित होकर तुमने यह कौनसी लीला रचायी है? खिन्न होकर उन दोनों कुदेवियों के लिए तुम यह क्या करने जा रहे हो? करोड़ों के मूल्य का मनुष्य जन्म तुम कोड़ियों में गंवा रहे हो। जैसे-कोई शेरनर बिना स्नान किया हुआ, भूख-प्यास से पीड़ित, जूं-लीख से छूटकारा पाने के लिए, बिखरे केशोंवाला नखों से मस्तक से लाखों बार खींच-खींचकर जूं व लीख को निकालता है, उसके नख घिस जाते हैं, पर वह घु-लीख को निकालने में समर्थ नहीं होता। भाग्योदय से वह मन के मनोरथ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्ष को प्राप्त करता है। कल्पवृक्ष पाते ही वह प्रार्थना करता है कि हे कल्पवृक्ष! हाथ में कंघी लेकर मेरे सिर में रहे हुए इन जूं-लीखों को साफ करो। इनसे घिरा हुआ मैं अतिशय कष्ट पा रहा हूँ। अतः इन दुष्कर्माणुओं रूप घु-लिखों को मुझसे विलग करो, जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। इसी प्रकार तुम भी कल्पवृक्ष के समान मनुष्य जन्म को पाकर भी उस व्यक्ति की प्रार्थना के समान काम से उत्पन्न सुख की वांछा करते हो। अगर तुम इस मनुष्य भव में जैन दीक्षा स्वीकार करोगे, तो तुम्हारी आत्मा ध्यान रूपी जल से क्षणमात्र में निर्मल बन जायगी। तब तुम मुक्ति स्त्री रूपी एकान्त सुख की निधि का वरण करोगे। उस मुक्तिश्री का आलिंगन करने से न तो बुढ़ापा आयगा, न ही मृत्यु। विषयों में सुख खोजने वाले मूल् को क्या कहा जाय? कहा भी है - निम्बद्रुमाद् भवन्तीह सहकारफलानि किम् । अर्थात् नीम के वृक्ष से आम्रफल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? कुटिल नारी के केश-पाश में कामान्ध व्यक्ति ही रंजित होते हुए देखे गये हैं। अस्थिर चित्तवाली स्त्रियाँ देखने से ही चपल मालुम होती हैं। हवा से हिलायी जाती हुई ध्वजा का वस्त्र देखने में ही अस्थिर ज्ञात होता है। वैसे ही कुटिल नारी चंचल होती है। वह किसी एक की होकर नहीं रह सकती। कपट रूपी द्वय स्तनों के कपाट से आवेष्टित नारी के छोटे से दिल में आवास करना बहुत से दोषों का कारण है। जिनधर्म से विपरीतता को धारण करते हुए पातकियों के लिए जगत् में स्त्रियों के नाभिमण्डल अर्थात् गर्भावास के अलावा अन्य कोई स्थान नहीं है। एक दोष रूपी स्त्री को ग्रहण करने से अन्य दोष भी अनायास ही आ जाते हैं। जैसे-स्याही पात्र को ग्रहण करने मात्र से हाथों में कालिमा आ जाती है। और भी, अगर स्त्रियाँ खुद द्वारा अर्जित थोड़ा सा धर्म भी देती हैं, तो हे मित्र! हासा-प्रहासा देवियाँ तो उस स्त्री की दासी के समान भी नहीं हैं। अतः जलती हुई आग की चिंगारियाँ छोड़ती हुई, लपटों से घमघमायमान अग्नि रूपी चिता में तुम प्रवेश मत करो-ऐसा नागिल बोला। हे मित्र! लौट आओ। इस अज्ञान मृत्यु
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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