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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् उदायन राजा की कथा उसने कहा कि क्या सामने से निकलते हुए काले काजल की तरह ऊँचे उठे हुए मेघों के समूह को देख रहे हो ? प्रत्युत्तर में कुमार नन्दी ने कहा कि हे भद्र! पाप की राशि के घर के समान वडवानल से निकलते हुए पिण्डीभूत हुए अंधकार को देख रहा हूँ। उस ज्ञाता व्यक्ति ने कहा कि हे भद्र! यदि ऐसा ही है, तो फिर जैसे मन्त्र-तन्त्र के ज्ञाता मंत्री के श्लोक वाक्य को ध्यान से सुना जाता है, वैसे ही मेरे वाक्यों को एकदम ध्यान से सुनो। इस प्रदेश में अञ्जनादि पर्वत की तरह अपनी पाँखों के छेदन के भय से मानो यहाँ आकर रहा हुआ हो, ऐसा एक पर्वत है, जो बहुत ही विशाल है और यहाँ से थोड़ा ही आगे है। उस पर रहे हुए बड़े-बड़े काले-काले वटवृक्ष इसके नितम्ब के समान दिखायी पड़ते हैं । मूसलाधार बरसात के डर से उसकी गुफाएँ अंधकार के समूह की तरह निकली हुई हैं। कुछ समय बाद चंचल लहरों के आंदोलित होने से यह पोत घुमता हुआ नीचे डूब जायगा। पर उससे पहले जीवन बचाने का कोई न कोई उपाय अवश्य प्रकट होगा । कुमार नन्दी ने कहा- तुम कैसे जानते हो कि हम इस वडवानल से निकल जायेंगे? हाय! अब यह पोत पञ्चशैल नहीं जायगा। अगर तुम यह सब जानते थे, तो तुमने ऐसा क्यों किया? क्यों मुझे रस्सी से बाँधकर कुएँ में लटकाया ? और अब वह रस्सी भी काट देना चाहते हो? मुझे विश्वास दिलाकर तुमने मेरा स्वर्ण ले लिया और मुझे समुद्र में फेंक दिया। हे धूर्त! तुमने तो बहुत अच्छा किया। इससे ज्यादा हित दूसरा कौन कर सकता है ? उसने कहा-मैं झूठा नहीं हूँ। हे सेठ! मैंने आपका कुछ भी अहित नहीं किया है । मैंने आपका हित ही साधा है। जो कहता हूँ, वह सुनो। इस तरह विलाप मत करो। अभी कुछ ही देर में यह जहाज समुद्र में से ऊपर उछलेगा, अतः आप व्याकुलता रहित होकर शाखा - मृग की तरह इस वृक्ष की किसी शाखा को मजबूती से पकड़ लेना । वहाँ आप वृक्ष के मूल में दो जीव, दो मुख, एक पेट तथा भिन्न-भिन्न फल को चाहनेवाले तीन पैरवाले भारण्ड पक्षी को देखेंगे। वे पञ्चशैल से आकर यहाँ निवास करते हैं। आप उसके पाँवों को पकड़कर चिपक जाना, जब वे बहुत सवेरे यात्रा करते हुए पंचशैल द्वीप जायेंगे । आप बिल्कुल भी मत डरना, क्योंकि जैसे महाशरीर वाली गाय के शरीर पर रेंगते हुए कीड़ों से गाय को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, वैसे ही आपके द्वारा उन भारण्ड पक्षी के पैरों पर लिपट जाने से उन्हें कुछ भी पता नहीं पड़ेगा। इस प्रकार यह वही पंचशैल है, जहाँ पर आप मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक पहुँचाये गये हैं। हवा के द्वारा कंपायमान होती हुई ध्वजा की तरह वृद्धत्व के कारण मेरे अंग भी शिथिलता से कंप कंपा रहे हैं। इस देह को छोड़ते ही मैं मृत्यु को वरण करनेवाला हूँ । अतः मेरे वचनों को आप अन्यथा न मानें। इस प्रकार कहकर अपने परिवार के लिए स्वर्ण देकर भविष्य में मरने की इच्छा करनेवाला वह संपूर्ण देश द्वीपों का ज्ञाता उछलकर समुद्र में विलिन हो गया । कुमार नन्दी स्वर्णकार भी जहाज के समुद्र से आकाश की ओर उछलने पर वटवृक्ष की शाखा पकड़कर उस पर चढ़ गया। बाद में भारण्ड पक्षी के पैरों को पकड़कर शीघ्र ही वह सुखपूर्वक पंचशैल पहुँच गया। वहाँ घूमते उसने अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर रत्नप्रासाद देखे । उस श्रेष्ठ व्यन्तरपुर को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया। हवा से हिलती हुई ध्वजाएँ, छोटी-छोटी घण्टियों के कम्पायमान होने से मधुर निनाद की गूंजती आवाज, दूर तक दीपों की जगमगाहट से युक्त भवनों की कतारें तारों के समूह की तरह शोभित हो रही थीं। स्वच्छ स्फटिक के समान भवनों के आगे घूमती हुई युवा-स्त्रियों के पाँवों की पायजेब के नुपूरों की मधुर झंकार अन्तरिक्ष में गतिभ्रम पैदा कर रही थी। ऐसे रमणीय नगर में पूछते-पूछते वह हासाप्रहास नामके भवनों के पास पहुँचा । उन भवनों के वातायन में रहे हुए किसीने उसे देखा। तब उसे उस भवन में लाया गया। वहाँ रही हुई उन दोनों देवियों ने कहा- यह रत्नों का 6
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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