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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
स्वर्णकार रहता था। वह रूप में कामदेव के समान एवं संपत्ति में कुबेर के समान था। वह स्वरूपवती स्त्रियों को देख-देखकर पाँच-पाँच सौ स्वर्णमुद्राओं में उन्हें खरीद लेता था। इस प्रकार उन स्त्रियों से विवाह करता हुआ वह लम्पट पाँचसौ स्त्रियों का स्वामी बन गया।
सोये हुए लोगों में जागृत के समान उसके नागिल नाम का एक मित्र था। वह धर्म-कर्म के मर्म को जाननेवाला तथा अरिहन्त प्रभु का परम श्रद्धालु था। एक दिन वह (कुमार नन्दित) अपने भवन के उद्यान में रक्त अशोक वृक्ष के नीचे श्रेष्ठ हाथी की तरह अपनी पत्नियों के समूह के बीच क्रीड़ा कर रहा
। कर रहा था। उस समय उसने हवा से उड़ती हुई रज के समान, सुवर्णद्वीप में होनेवाले, बादलों से घिरे हुए विद्युत् पुंज की तरह दक्षिण दिशा से आते हुए उत्कट ज्योति समूह को आकाश में अपनी खुली आँखों से देखा। क्षणार्ध के लिए तो यह क्या है? इस प्रकार सभी विस्मित हो गये। लेकिन तभी ज्योति सहित केले के वृक्षों के बीच दो अप्सराओं को देखा। रति-प्रीति में परम आनन्द को पानेवाले उसने चिन्तन किया कि क्या ये कामदेव की प्रियाएँ हैं? अथवा शंकर की प्रणयिनी वे दोनों पार्वती हैं। इनके जैसा रूप इस जगत् में अन्य किसी का संभव नहीं है। निश्चय ही ये दोनों जगत् विधाता ब्रह्मा की तूलिका के अग्रभाग से गिरनेवाली अमृत बूंदें हैं, जो गगन के आँगन में तारिकाएँ बन गयी हैं। अगर रतिसुख के स्थानरूप ये किसी भी प्रकार से प्राप्त हो जायें, तो स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सुखार्थियों के द्वारा पुरुषार्थ क्यों किया जाये! उनके पास जाकर उनके मुख-सुधारस के सिंचन से तत्क्षण उसके रोम हर्ष से खिल उठे। अपने करकमलों को जोड़कर स्नेहपूर्वक कहा-अमित पुण्य की प्रगल्भता को प्राप्त आप दोनों कौन हैं? तब उन दोनों ने कहा-हम दोनों पंचशैल द्वीप के अधिवासी हासाप्रहास नाम के व्यन्तराधिपति की प्रियाएँ हैं। लेकिन इस समय हम उनसे बिछुड़ जाने के कारण उनके विरह से आतुर हैं। अपने अनुरूप प्रेमी को देखने के लिए हम यहाँ आयी हैं। कुमार नन्दी ने कहा-अच्छा! यदि ऐसा है तो हे शुभे! प्रियों में प्रिय एकमात्र मुझे स्वीकार करो, तो मुझे अच्छा लगेगा। यह भवन मेरा है, लक्ष्मी मेरे बाये अंक की दासी है। यह मेरा क्रीड़ा उद्यान है, सरोवर, वापी, पर्वत - ये सब मेरे वश में रहे हुए हैं। ज्यादा क्या कहूँ? हे देवियों! मेरा प्रेम स्वीकार करो। जो तुम्हें बड़ी कठिनाई से मिलता है, वह सुख तो कुछ भी नहीं है। तब उन दोनों ने कहा-हमारा भी यही प्रयोजन है। तुम पंचशैल द्वीप पर आकर हमसे मिलो। वे दोनों देवियाँ ऐसा कहकर आकाश मार्ग से चली गयी।
कुमार नन्दी उनके वियोग से अश्व की तरह हो गया। उसे आहार रुखा लगने लगा। हवा अग्नि की लपट के समान, कमलनाल तीक्ष्ण बाणों के समान तथा पुष्पशय्या अंगारों के समान लगने लगी। वह सोचने लगा कि मेरे शरीर में रहे हुए जलतत्त्व से क्षण क्षण में निकलनेवाली अञ्जलि रूपी जलराशि मेरे काम रूपी ताप को शान्त नहीं कर सकती। उन देवियों के संगरूपी औषधि ही इस काम ज्वाला को बुझा सकती है।
अतः ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा के पास गया और उन्हें अवगत करवाकर पूरे नगर में यह उद्घोषणा करवा दी कि जो कोई भी निष्णात बुद्धिवाला मुझे पञ्चशैल द्वीप ले जायगा, मैं उसे करोड़ स्वर्णमुद्रायें दान में दूंगा। वह पटह सुनकर समस्त द्वीपों के मार्ग का ज्ञाता एक व्यक्ति अपने घर से निकला और उसके पास जाकर बोला-मैं आपको आपके इच्छित द्वीप ले जाऊंगा। स्वर्णकार ने भी तत्क्षण उसे एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दे दी। कहा भी गया है
विद्यते किमदेयं वा कामिनां कामिनीकृते । अर्थात् कामिनी के लिए कामियों को क्या अदेय होता है?
अनुकूल पवन मन को शान्ति प्रदान कर रहा था। महापोत पर मल्लाह सवार हुआ। बड़ी-बड़ी विशाल चंचल लहरों से अपने मन की तुलना करते हुए अथाग तल वाले समुद्र के बीच भाग में जहाज पहुँच गया। तब