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सम्यक्त्व प्रकरणम्
उदायन राजा की कथा से लौट आओ। अग्नि में पतङ्गे की तरह गिरकर व्यर्थ ही यम के अतिथि न बनों।
हितैषी मित्र नागिल के द्वारा प्रतिबोधित किये जाने पर भी निदान पूर्वक कुमार नन्दी ने अपने आप को जलती हुई चिता में होम दिया। बहुत सारी शिक्षाओं के द्वारा भी अकृत्य से वापिस न लौटा। जैसे द्वार का शिथिल निरोध होने पर वह द्वार खुल जाता है वैसे वह मूद बुद्धिवाला अकाल मृत्यु से पीछे नहीं हटा। और जैसे हाथी स्मृति भंग हो जाने से हल्की सी श्रृंखलाओं से बंधा होने पर भी उन श्रृंखलाओं को नहीं तोड़ पाता है।
तब उस स्वर्णकार के चिताग्नि में गिर जाने पर श्याम धूम्र के साथ परिजन के शोक-शब्द भी गगन मण्डल में छा गये। राग-भोग सहित ५०० पत्नियाँ व्यर्थ में ही छूट गयी। कहा गया-उसका अनुसरण करनेवाला भी अब कौन था। सब कुछ एक झटके में ही छूट गया। और वह मरकर अज्ञान-कष्ट रूपी तप के माध्यम से हासा-प्रहासा देवियों के व्यन्तर देवरूप में उत्पन्न हुआ।
__ वेदना से आर्त मनुष्य की तरह नागिल भी अपने मित्र की अज्ञान-मृत्यु को देखकर परम निर्वेद को प्राप्त हुआ। कामसुख में जड़ रूप से लिप्सावाला तो मोक्ष सुख से पराङ्मुख होकर अग्नि में प्रवेश करता है और कामसुख में क्षणिक लिप्सावाला भवोदधि को पार कर लेता है। राजीमती को देखकर भगवान् अरिष्टनेमि के भाई रथनेमि भी अपने व्रत से चलित हो गये। अतः कामरूप दास का कहना ही क्या? अथवा जिसके लिये मैं शोक करता हूँ वह मेरा है ही नहीं-यही सत्य वचन है। कहा भी है
दूरे ज्वलन्तमीक्षन्ते सर्वे नाऽधः स्वपादयोः।
अर्थात् दूर से जलता हुआ सभी को दिखायी देता है। यानि दूसरे के अकृत्य सभी को दिखते हैं परंतु स्वयं के पैरों में जलता हुआ यानि स्वयं के पाप दिखायी नहीं देते।
- गुरु के उपदेश से बाल्यावस्था से धर्म को जाननेवाला मैं अगर दीक्षा नहीं लूँगा, तो यह मेरे लिये दुःख की बात होगी। इस तरह अत्यधिक विचार करके विकल आत्मा वाले नागिल ने शुद्धात्मा बनकर सिद्धि सुख की एक मात्र चाह में निमग्न बनकर व्रत को ग्रहण किया। दीक्षा ग्रहण करके नागिल ऋषि अतिनिर्मल भावों से व्रत का पालन करने लगा। केवलियों के संयम शिखर को क्या कोई भी अन्यत्र कम्पित कर सकता है? अपने गुरु के साथ चिरकाल तक विहार करते हुए बारह प्रकार के तप द्वारा अपनी कर्मशिला को पतली करते हुए पवित्रता को प्राप्त होता रहा। सम्यग आराधना करके समाधि मरण प्राप्तकर वह बारहवें देवलोक में इन्द्र का सामानिक देव हुआ।
एक बार आठवें नन्दीश्वर नाम के द्वीप में अरिहन्त चैत्य की यात्रा के लिए सभी देव रवाना हुए। वह स्वर्णकार भी हास-प्रहासा भवन में विद्युन्माली नामक देव हुआ। हास-प्रहासा के वातायन से देवों को जाते देखकर हासा-प्रहासा देवियों ने विद्युन्माली देव को कहा कि - हे नाथ! नन्दीश्वर जाने के लिए निकलते हुए देवेन्द्रों के सामने गाते हए वाद्यन्त्र बजाना हम किङकर देवों का अधिकार है। यह सनकर अभी-अभी देव रूप से उत्पन्न हआ वह अहंकारी क्रोध से दुर्द्धर होकर, महासभट की तरह भारी हाथ भूमि पर मारकर, सर्य की किरणों की तरह ताम्रवर्णी आँखों से ताण्डव नृत्य करते हुए निरभ्र आकाश में बोलने के लिए उद्यत हुआ-मुझ स्वामी के अभाव में कपोल कल्पित स्वामित्व भाव से ये देव ताण्डव कर रहे हैं। क्यों न हो? सूर्य के पीछे-पीछे जाते हुए दीप क्या प्रकाशित नहीं होते? वेश्या के नाट्य-स्थान में मेरे आसन के समीप बैठने से मुक्तावली की तरह ये पटह वाजिंत्र मेरे गले में डालना चाह रहे हैं, अतः निश्चय ही ये मरने के इच्छुक है। और भी, हे मेरी पत्नियों! सुनो, तीनों भुवन में त्रि-जगत् के जीतने में ओजस्वी मेरा प्रतिपक्षी कोई नहीं है। शेर के साथ हरिण की क्या प्रतिस्पर्द्धा! महाशक्तिशाली शस्त्र ही पर्वतों के समूह तथा हाथी के मस्तक का भेदन करता है।
इस प्रकार दोनों पत्नियों को यह सब बताकर वह देवों के समूह के सामने स्वयं ही पटह लेकर कुछ ध्वनि