SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् अर्थात् उदीर्ण मिथ्यात्व के क्षय तथा अनुदीर्ण के उपशान्त से तथा मिश्र भाव परिणत को वेदन करते हुए उपशम होता है। ___ इस प्रकार उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय होने पर तथा अनुदीर्ण का उपशम होने पर जो विपाक प्रदेश वेदन रूप दोनों ही प्रकार के उदय का विष्कम्भ है उसी से निवृत्त औपशमिक है। यह पूर्व में वर्णित विधि द्वारा प्राप्त होता है। अथवा - उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसमियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखविय मिच्छो लहउ सम्मं ॥१॥ (विशेषा. ५२९) उपशम श्रेणि गत जीव के उपशम समकित होता है। जिसने तीन पुंज नहीं किये हैं तथा मिथ्यात्व अक्षपित है, वह सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। कारक-रोचक-दीपक के भेद से सम्यक्त्व तीन प्रकार का भी है। कारक समकित साधुओं की तरह, रोचक समकित श्रेणिक आदि की तरह तथा दीपक समकित अंगारमर्दक आचार्य की तरह होता है। वेदक समकित की अलग से विवक्षा करने पर सम्यक्त्व चार प्रकार का भी है। यह वेदक समकित पौद्गलिक सम्यक्त्व के चरम पुद्गल वेदन काल में होता है। थोड़ा सा तत्त्व-श्रद्धान का भाव होने के कारण सास्वादन की भी सम्यक्त्व में विवक्षा होने से इसके सहित सम्यक्त्व पाँच प्रकार का भी होता है। इन पाँचों में से प्रत्येक के निसर्ग व अधिगम के भेद की विवक्षा से सम्यक्त्व दस प्रकार का भी है। निसर्ग आदि रूचि से भी समकित दस प्रकार का है। जैसे - निसग्गुवएसंरुइ आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थारंरुई किरिया संखेव धम्मरुई । (उत्तरा. अध्य. २८ गा. १६) निसर्ग रुचि, उपदेश रुचि, आज्ञारुचि, सूत्र रुचि, बीज रुचि, अभिगम रुचि, विस्तार रुचि, क्रिया रुचि, संक्षेप रुचि तथा धर्म रुचि - ये दस प्रकार सम्यक्त्व के है। गुरु - उपदेश के बिना जिनोक्त तत्त्वों में जिसकी श्रद्धा होती है, वह निसर्ग रुचि है। गुरु - उपदेश से जो श्रद्धा होती है, वह उपदेश रुचि है। जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित है, ऐसा मानते हुए श्रद्धा करना आज्ञा रुचि है। सूत्र में सिद्धान्त में अर्थात् अंग-उपांग रूप में जो कहा गया है, वह वैसा ही है, इस प्रकार का श्रद्धान करना सूत्र रुचि है। अरिहंत देव हैं, सुसाधु गुरु हैं तथा जिनोक्त तत्त्व ही धर्म है - इस प्रकार धर्म रूपी बीज में जो रुचि होती है वह बीज रुचि है। अभिगम द्वारा समस्त श्रुत-अर्थ के ज्ञान से जो रुचि होती है, वह अभिगम रुचि है। सर्व प्रमाण नय-विधि द्वारा जो सर्व द्रव्य आदि भाव की प्राप्ति रूप विस्तार होता है, उसकी रुचि विस्तार रुचि है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रत, तप, विनय, सत्य, समिति-गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि होना क्रिया रुचि सम्यक्त्व है। ____ अनभिगृहित कृदृष्टि युक्त, प्रवचन का ज्ञान न होने पर भी भाव से जिनोक्त तत्त्व पर श्रद्धान करना संक्षेप रुचि है। 289
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy