SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्यक्त्व संस्कार करके वे देव अपने स्थान पर चले गये। ईशानेन्द्र ने तत्काल मांगलिकों को बुलवाया। सिद्धायतन ग्रहों में अर्हत्-बिम्बों की बिना पूजा किये उनके दर्शन मात्र से उसके सम्यक्त्व परिणाम उत्पन्न हुआ। आसन्न सिद्धिक होने से वह परम आर्हत बन गया। दो सागरोपम से कुछ अधिक देव-ऋद्धि का उपभोग करके वहाँ से च्युत होकर महाविदेह में जन्म लेकर तामलि का जीव सिद्धि को प्राप्त करेगा। वह तामलि तापस तीव्र तपस्या के द्वारा दुस्सह कष्ट सहन करने पर भी मिथ्यादृष्टि होने से सिद्ध नहीं ही हुआ। पर जिनेन्द्र मार्ग में स्थित व्यक्ति अगर तामलि तापस के तप के सातवें अंश के भी बराबर भी हो, तो भी वह सम्यक्त्व के कारण सिद्धि रूपी नगरी को प्राप्त करेगा। अतः नितान्त शिव को प्राप्त करने का कामी जीव सम्यक्त्व विधि में प्रयत्न करे। एवं दुर्जनों के संग के समान मिथ्यात्व मार्ग का दूर से ही त्याग करे। इस प्रकार तामलि कथा पूर्ण हुई।।४०।२४६।। अब यदि ऐसा है, तो क्या करना चाहिए, इसे कहते हैं - तम्हा कम्माणीयं जे उ मणो दंसणंमि पयइज्जा। दंसणवओवेहि सफलाणि हुंति तयनाणचरणाणि ॥४१॥ (२४७) इसलिए कर्म से हटने के लिए मन को सम्यग दर्शन में प्रयत्न करना चाहिए। सम्यग्दर्शन से यक्त ही तप. ज्ञान व चारित्र सफल होते हैं।।४१।२४७।। क्या सम्यग्दर्शन चारित्र से भी ज्यादा अतिशययुक्त है? तो कहते हैं - भटेण चरित्ताओ सुट्टयरं दंसणं गहेयव्यं । सिज्जति चरणरहिया दंसणरहिया न सिजंति ॥४२॥ (२४८) चारित्र से भ्रष्ट होने पर भी सम्यग दर्शन को श्रेष्ठतररूप से ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि चारित्र रहित तो सिद्ध हो जाते हैं, पर दर्शन-रहित सिद्ध नहीं होते। यहाँ चारित्र-रहित का अर्थ द्रव्य चारित्र से रहित जानना चाहिए, भाव चारित्र से रहित नहीं। भाव चारित्र के अभाव में तो केवलज्ञान का भी अभाव होता है। इसको स्वयमेव ही कहा जायगा कि "चरण-करण से रहित श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि भी सिद्ध नहीं होता।"।।४२।।२४८।। इस प्रकार सम्यक्त्व के स्वरूप को कहकर अब उसके भेदों को कहते हैं - एगविह-दुविह-तिविहं-चउहा पंचविह-दसविहं सम्म । मुक्खतरुबीयभूयं संपइराया व धारिज्जा ॥४३॥ (२४९) एक प्रकार का सम्यक्त्व तत्त्वरूचिरूप है। दो प्रकार का सम्यक्त्व नैसर्गिक व अधिगम है। नैसर्गिक तो जातिस्मरण ज्ञान आदि से उत्पन्न होता है और अधिगम तो गुरु आदि के उपदेश से तत्त्व का ज्ञान होने पर उत्पन्न होता है। तीन प्रकार का क्षायिक-क्षयोपशमिक तथा औपशमिक रूप है। इसमें क्षायिक तो अनंतानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र तथा पौद्गलिक सम्यक्त्व के क्षय से होने वाला अत्यन्त विशुद्ध तत्त्व रुचि का परिणामरूप है। क्षायोपशमिक तो उदीर्ण मिथ्यात्व के क्षय तथा अनुदीर्ण के उपशम से सम्यक्त्वरूप आपत्ति के लक्षण से युक्त विपाक के उदय स्वरूप से निवृत्त होता है। प्रदेश से तो मिथ्यात्व को तथा विपाक से सम्यक्त्व पुंज को वेदन करने वाले को होता है। कहा भी है - मिच्छत्तं जमुइन्नं तं खीणं अणुइयं तु उवसंतं । मीसीभावपरिणयं वेइज्जंतं खउवसमं ॥१॥ (विशेषा. ५३२) 288
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy