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________________ तामलि तापस की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् जन सनाथ बन जायेंगे और हमारी नगरी पुनः राजवन्ती बन जायगी। यह सुनकर तामलि ने विचार किया कि किये हुए शुभाशुभ कर्म स्वयं ही फल देते हैं। फिर निदान करने से क्या? खेती में उगी हुई घास की तरह ये संसार के सुख है। अतः उनके लिये कण की उपमा वाले मोक्ष सख को देनेवाले तप का कौन नाश करे! इस प्रकार विचार करते हए भोग आदि द्वारा उपोषित विषयों में वैराग्य होने से उन महर्षि के द्वारा उनके वचनों का आदर नहीं किया गया। तब साध्य की असिद्धि से वैलक्ष्य से कलुष आनन वाले वे देव तामलि के प्रति क्रोध भाव युक्त होकर वहाँ से चले गये। तब तामलि तापस ने साठ वर्ष तक अनशन पालकर भव-सुख में अनासक्त रहते हुए अपने मार्ग में एकाग्र मानस वाला होकर ईशान कल्प में ईशान अवतंसक विमान में, अन्य के असमान ऋद्धिवाले महर्द्धिक इन्द्र के रूप में उपपात किया। ईशानेन्द्र अट्ठावीस लाख विमानों के अधीपति थे। उसके अस्सी हजार सामानिक देव थे। तेंतीस त्रायस्त्रिंशक देव तथा चार लोकपाल थे। श्रृंगाररस की सागर रूप आठ अग्रमहीषियाँ थीं। और भी बहुत सारे विमानवासी देव तथा देवियाँ उसकी आज्ञा के वश में रहे हुए थे। उधर बलिचंचा के देवों ने अवधिज्ञान से जाना कि तामलि तापस ने बिना निदान किये ईशान देवलोक के इन्द्र पद को प्राप्त किया है। तब वे देव कुपित होते हुए शीघ्र ही दुराशय-पूर्वक उस प्रदेश में गये। जहाँ निर्मल आत्मा वाले तामलि तापस की निर्जीव देह को देखा। जिस प्रकार कफ के प्रतिकूल सुंठ नामक वनस्पति विशेष कफ को दूर करती है, उसी प्रकार प्रकृति से रुष्ट वे बलिचंचा के देव उस शरीर को उसके पाँवों से बाँधकर घिसते हुए उसे तामलिप्ति नगर में लेकर आये। सभी त्रिक-चतुष्क आदि नगर-मार्गों पर पापी मनुष्य के समान उसके शव की अवमानना की। फिर इस प्रकार उद्घोषणा की कि यह तामलि दुष्ट बुद्धिवाला, मूढ, बाल-तपस्वी, शठआत्मावाला, पाप-कर्म करनेवाला था। हे लोगों! मरकर भी यह दुरात्मा दुर्गति में गया है। शुभ की कामना करनेवालों को किसी को भी इसका नाम भी ग्राह्य नहीं है। इसी बीच नवोत्पन्न ईशान सुरेन्द्र उस दिव्य प्रवृद्धि को प्राप्तकर अत्यन्त विस्मित हुआ। उसने विचार किया कि मैं कौन था? कहाँ से आया हूँ? किन शुभ कर्मों के द्वारा यहाँ पैदा हुआ हूँ? इस प्रकार विचार करते हुए अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव को जाना। अपने पूर्वभव की देह को इस प्रकार से प्रिंसते हुए तथा उद्घोषणा करते हुए उन अधम असुरों को देखा। तब उन पर क्रुद्ध होते हुए क्रूर दृष्टि से उन्हें देखते हुए अत्यन्त दुस्सह आतप वाली तेजोलेश्या छोड़ी। जलते हुए तीव्र वेदना से वे उछलने लगे। यह क्या विपदा आ पड़ी - इस प्रकार विचार करते हुए आकुल हो गये। तब अवधिज्ञान के प्रयोग से उस ईशान देवलोक के इन्द्र को कुपित जाना। उसी की तेजोलेश्या में अपने आप को जलते हुए देखा। तब वे असुर शीघ्र ही चकित होते हुए शरण में आकर अंजलिपूर्वक दीन होकर दाना माँगते हुए इस प्रकार बोले - प्रभो! हम दीनों पर प्रसन्न होओ। क्रोध का संहरण करो। हरण करो। हम पुनः इस प्रकार का अविनय आपका कभी भी नहीं करेंगे। हमारा यह एक ही अपराध हुआ है। अतः हे स्वामी आप हमें क्षमा करने के योग्य है। आप जैसे महान् लोगों के लिए यही योग्य है। कहा भी है - सन्तः प्रणतवत्सलाः। अर्थात् सज्जन झुके हुओं पर वत्सल भाव वाले होते हैं। तब उन ईशानेन्द्र ने उन्हें प्रणत देखकर तेजोलेश्या को दूर कर दिया। क्योंकि - प्रणामपर्यन्त एव कोपो महीयसाम् । अर्थात् महान् व्यक्तियों का कोप प्रणाम-पर्यन्त ही रहता है। तब वे असुर देव वेदना रहित हुए। फिर उन्होंने उसका सत्कार करके उसके पूर्व शरीर का भक्तिपूर्वक 287
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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