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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् तामलि तापस की कथा करके शुभाशय पूर्वक नगर के बाहर आया। गंगा नदी के किनारे जाकर बाह्य तथा आन्तरिक परिग्रह को छोड़कर समस्त लोगों से क्षमा याचना करके निर्ममत्व भाव से भावित होकर गंगा तट पर निवास करनेवाले वानप्रस्थ तपस्वियों के पास तामलि ने उत्कट प्राणाम व्रत को स्वीकार किया। उस समय तामलि ने दुर्ग्रह अभिग्रह को धारण किया कि जीवनभर बेले-बेले पारणा करूँगा। तप वाले दिन सूर्य के अभिमुख ऊपर भुजाएँ करके आतापना भूमि में जाकर आतापना को सहन करूँगा। पारणे के दिन तामलिप्ति नगरी में उच्च-नीच कुलों से शुद्ध चावलों को ग्रहण करूँगा। फिर नदी के तीर पर जाकर उन चावलों के चार भाग करके एक भाग जलचर, एक भाग स्थलचर तथा एक भाग खेचर - प्राणियों को देकर चौथे अंश को लेकर गंगा के निर्मल जल द्वारा इक्कीस बार स्वयं प्रक्षालित करके उसका भोजन करूँगा। उसके सर्व कष्ट-कलाप की अनुमोदना करते हुए तामलि ऋषि को नमन करके सभी जन अपने स्थान पर चले गये। तामलि तापस ने साठ हजार वर्ष तक तपस्या की एवं अपनी समस्त प्रतिज्ञाओं को निर्वाहित किया। क्योंकि सत्यसंधो महाऋषिः। महान्ऋषि सत्य-प्रतिज्ञ होते हैं। फिर उन्होंने चिन्तन किया कि मेरे द्वारा चिरकाल तक तप किया गया है। मेरी काया में सिर्फ त्वचा तथा हड्डियाँ ही शेष रह गयी हैं, अब शरीर सूख गया है। इस प्रकार विचारकर उस शुद्धात्मा ने अपनी काया को त्यागने की इच्छा की। अतः वे तामलि तापस अपनी तामलिप्ति नगरी को आये। ज्ञाति जनों को पूछकर, क्षमा याचना करके, पाखंडियों गृहस्थों तथा पूर्व-पश्चात् संस्तव वालों को पूछकर गंगा के समीप जाकर, अनशन करके किसी विजन प्रदेश में कहीं भी पादपोपगमन संथारा स्वीकार कर लिया। उधर रत्नप्रभा पृथ्वी से व्यामित, पूर्व दिशा के एक हजार योजन नीचे जाने पर बलिचंचा नामकी नगरी है। उस नगर में भवनपति असुर कुमार देवों का निवास है। वहाँ असुरेन्द्र बलि की राजधानी हमेंशा से स्थित है। वहाँ के इन्द्र के बलिचंचा से च्युत हो जाने के कारण उस समय वह नगरी राजा-विहिन हो गयी थी। अतः वहाँ के सारे देव तथा देवी दुःखित हो गये थे। तब उन देव-देवियों ने अवधिज्ञान से देखते हुए उपयोग लगाया कि मर्त्यलोक के मनुष्यों में से कौन धार्मिक इनमें से हमारा स्वामी बनेगा। इस चिन्ता से उन्होंने बाल तपस्वी तामलि तापस को 1. उन्होंने उग्र अज्ञान तप के द्वारा भी विशाल पण्य अर्जित कर लिया था। उस समय वे अपने शरीर में भी आशा रहित, संन्यास धारण किए हुए, कर्म-कल्मष को विलीन प्राय करके पर ब्रह्म में संलीन हो रहे थे। तब उन सभी असुरकुमार देवों ने अपनी महाऋद्धि द्वारा उन मुनि के मन को वश में करने के लिए खूब संगीत ध्वनि की। रसयक्त गीतिकाएँ वे गायक असरकमार लय-भाव के रस से यक्त मखद्वारा देव गाने लगे. असर देवलोक की सुरांगनायें नृत्य करने लगीं। संगीत से लिपटे हुए नृत्य की चेष्टाएँ भी तामलि तापस के मन को रंजित नहीं कर सकी। उस पर थोड़ा भी असर नहीं हुआ। तब संगीत के अन्त में उन सभी ने तामलि को विनयानत होकर दीनता प्रकाशित करते हुए अश्रुपूर्ण नयनों से कहा - भगवन्! हम बलिचंचा के अधिवासी देव हैं। भाग्य वशात् हम स्वामी रहित हो गये हैं, अतः आपका स्मरण करके यहाँ आये हैं। क्योंकि हे तपोनिधि! आप ही परोपकार करनेवाले हैं। आप जैसे महापुरुष की कृपा ही दीनों पर निधि के समान होती है। अतः आप निदान करके असुरेन्द्र की पदवी को प्राप्त करें। हे चिंतामणि प्रभो! आप हमारा मन चिंतित पूरण करें। और हे स्वामी! आपके द्वारा इस प्रकार करने में क्या स्वार्थ है? अथवा क्या स्वार्थ होगा? हम सभी आपके भावी किंकर होंगे। ये दिव्यसौन्दर्य तथा लावण्य की मूर्तियाँ, संसार के सर्वस्व सुख समूह के निधि रूपी भूमि, सर्वांग से सुख देनेवाले अमृत-तुल्य, जगत के द्वारा काम्य असुरांगनायें आपकी प्रेयसी होंगी। अतः हमारी प्रार्थना स्वीकार करके अब आप हमारे असुरेन्द्र बनें। ये सभी 286 देखा
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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