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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्प्रति राजा की कथा जो अस्तिकाय धर्म, श्रुत धर्म तथा चारित्र धर्म जिनेश्वर द्वारा कहा गया है, उसी धर्म पर श्रद्धा होना धर्म रुचि अतः इस प्रकार मोक्ष रूपी वृक्ष के बीज भूत को संप्रतिराजा की तरह धारण करना चाहिए। यह सम्प्रति राजा का वृतान्त सम्प्रदायगम्य है, जो इस प्रकार है - इस अवसर्पिणी काल में लोकातिशय ऐश्वर्य से युक्त, आप्त, चौबीसवें तीर्थंकर त्रिजगत्पति श्री भगवान् महावीर स्वामी हुए। स्वामी द्वारा, सुधर्मा स्वामी नामक पाँचवें गणधर सन्तानी होंगे (अर्थात् उनका शिष्य परिवार बढेगा). अतः निज पद पर बैठाया गया। उनके शिष्य जम्ब स्वामी हए, जो स्वर्ग के समान प्रभा से युक्त थे। उन्होंने केवल्यश्री को प्राप्तकर मानो लोभ पूर्वक वह कैवल्य श्री अन्य किसी को नहीं दी। अर्थात् वे अन्तिम केवली हुए। उनके शिष्य अत्यधिक सामर्थ्यवान् प्रभवस्वामी हुए। व्रत में भी वे मनोहारी हुए। क्योंकि - नृणां शैली हि दुस्त्यजा। मनुष्यों की रीति ही दुस्त्यागनीय है। उनके अन्तेवासी पंडित शय्यंभव सूरि हुए, जिन्होंने दशवैकालिक श्रुत की रचना की। जब तक तीर्थ रहेगा तब तक यह सूत्र भी रहेगा। उनके शिष्य भद्र यश वाले यशोभद्रसूरि हुए। उनके भी होनेवाले शिष्य संभूत नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके प्रमुख भुजा के समान भद्रबाहु श्रेष्ठ गणी हुए, जिन्होंने श्रुत सभप्रदीपिका आदि नियुक्तियाँ कीं। उनके शिष्य स्थलिभद्र स्वामी हए जिन्होंने परम यग-प्रधानता को स्वीकार किया। जिन्होंने काम को तणवत किया एवं अंतिम श्रुत केवली हुए। उनके महागिरि व सुहस्ती नामक दो शिष्य थे। संपूर्ण अंधकार को खण्डित करनेवाले सूर्य व चन्द्रमा की तरह वे दोनों थे। दोनों को गुरु द्वारा पृथक्-पृथक् गण देकर स्थापित कर देने पर भी गाद स्नेह के कारण सतीथि होने से वे एक साथ रहने लगे। ___ एक बार वे दोनों विहार करते हुए कौशाम्बी नगरी में आये। बड़े उपाश्रय का लाभ न मिलने से दोनों पृथकपृथक् आश्रय में ठहर गये। वहाँ भीख माँगकर भोजन करने के समय के समान महाकाल पड़ा। लोगों द्वारा स्वप्न में भी भोजन नहीं देखा जाता था। उस समय सुहस्ति आचार्य के साधु-सिंघाड़े ने भिक्षा के लिए एक धनाढ्य धन सार्थपति के घर में प्रवेश किया। अचानक मुनि को देखकर धन सार्थपति तेजी से उठा। अतिभक्ति से उठते हुए उसके प्राण तथा रोम-रोम रोमांचित हो उठे। तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा - सिंहकेसरी मोदक आदि अद्भुत विपुल आहार सामग्री लाओ, जिससे इन दोनों मुनियों को प्रतिलाभित करूँ। उसने भी कल्पवृक्ष से प्राप्त की तरह सभी सामग्री लाकर बिना इच्छाके भी उन मुनियों को जबर्दस्ती सारी सामग्री बहरा दी। कोई भिखारी उसी समय भिक्षा के लिए उनके घर आया था। उनके दानग्रहण को देखकर विस्मित होकर विचार करने लगा - अहो! धन्य है! कृतार्थ है इस जगती पर ये! देवता की तरह जिनको इस प्रकार से भी नमन किया जाता है, जिससे कि सुधा से भी मधुर खण्डखाद्य आदि द्वारा इस प्रकार प्रतिलाभित किया जा रहा है। दीनता प्रकाशित करने पर भी नारक के समान मेरे जैसों को तो अन्न का लेशमात्र भी कहीं से भी, किसी से भी प्राप्त नहीं होता। दीनता के अतिरेक से अगर कोई कुछ देता भी है, तो आक्रोश रूपी कालकूट विष के कणों से मिश्रित करके ही थोड़ा कुछ देता है। अतः मैं भी साधु को प्राप्त करके (साधुओं के पास जाकर) इन्हीं साधु से याचना करूँ, जिससे ये करुणानिधि करुणा करके इसमें से कुछ दे देवें। इस प्रकार विचार करके उसने उन दोनों साधुओं से याचना की। उन दोनों साधुओं ने कहा - हे भद्र! हम तो इस आहार का वहन-मात्र कर रहे हैं। हमारे गुरु ही इसके स्वामी है। भक्ति से पीछे-पीछे चलने के समान वह अन्न का अर्थी याचक भी उन दोनों मुनियों के पीछे-पीछे चलने लगा। वहाँ आश्रय में स्थित गुरु को देखकर आगे जाकर उनसे भी याचना करने लगा। उन साधुओं ने भी गुरु से कहा कि इसने हमसे भी याचना 290
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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