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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् जीव तत्त्व-कायस्थिति पीलु नामक वृक्ष का जो पुण्यदल होता है, वह आर्द्र आमलक होता है, उसके प्रमाण पृथ्वीकाय के जीव होते हैं। वे सभी जीव अलग-अलग कबूतर जितनी काया धारण कर लेवें, तो इस जंबूद्वीप में नहीं समा सकते॥१२॥२१८॥ अब अप्काय का तनुमान कहते हैं - एगंमि उदगबिंदुमि जे जीया जिणयरेहिं पन्नत्ता । ते वि य सरिसवमित्ता जंबुद्दीवे न माइज्जा ॥१३॥ (२१९) जिनेश्वरों ने एक पानी की बुंद में जितने जीव बताये हैं, वे एक-एक जीव अगर एक-एक सरसों के दाने जितनी काया धारण करे, तो इस जंबूद्वीप में समावे नहीं। यहाँ सर्षव प्रमाण कहने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी से अप्काय के जीव सूक्ष्म होते हैं। उत्तरोत्तर सभी कायों के जीव पूर्व-पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्म होते हैं। अर्थात् अप्काय से तेउकाय के जीव सूक्ष्म इस प्रकार समझना।।१३।।२१९।। यहाँ शंका होती है कि यदि ऐसा है, तो पृथ्वी आदि के शरीर अति सूक्ष्म होने पर कैसे दिखायी देते हैं? इसका समाधान करते हुए कहा जाता है - एगस्स दुण्ह तिण्हव संखिज्जाण व न पासिउं सक्का । दीसंति सरीराइं पुढविजियाणं असंखिज्जा ॥१४॥ (२२०) एक, दो, तीन अथवा संख्याता पृथ्वीजीवों के शरीर देखने के लिए छद्मस्थ जीव समर्थ नहीं है, किन्तु जब पृथ्वी के असंख्याता जीव इकट्ठे होते हैं, तभी वे दिखायी पड़ते हैं।॥१४॥२२०।। अब अन्यों के अतिदेश को भी कहते हैं - आऊतेऊयाऊ एसि सरीराणि पुढयिजुत्तीए । दीसंति वणसरीरा दीसंति असंख संखिज्जा ॥१५॥ (२२१) अप्काय, तेउकाय तथा वायुकाय के शरीर भी पृथ्वीकाय की तरह असंख्याता मिलने पर ही दिखायी देते हैं। साधारण वनस्पति काय के शरीर भी असंख्याता मिलने पर ही दिखायी देते हैं। प्रत्येक वनस्पति काय के शरीर कभी संख्याता, तो कभी असंख्याता मिलने पर दिखायी देते हैं।।१५।।२२१।। अब आयु द्वार की गाथा-युग्म को कहते हैं - बावीसई सहस्सा सत्तसहस्साई तिनहोरत्ता । वाए तिन्नि सहस्सा दसवाससहस्सिया रुक्खा ॥१६॥ (२२२) संवत्सराणि बारस राइदिय हुंति अउणपन्नासा । छम्मास-तिन्नि-पलिया पुढवाईणं ठिउक्कोसा ॥१७॥ (२२३) पृथ्वीकाय की बावीस हजार वर्ष की, अप्काय की सात हजार वर्ष की, तेउकाय की तीन अहोरात्रि की, वायुकाय की तीन हजार वर्ष की, वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की स्थिती होती है। जघन्य सभी की अंतर्मुहुर्त होती है। बेइन्द्रिय की उत्कृष्ट बारह वर्ष की, तेइन्द्रिय की उनपचास अहोरात्रि की तथा चउरिंद्रिय की छः मास की उत्कृष्ट स्थिती होती है। अनन्त वनस्पतिकाय की तो जघन्य-उत्कृष्ट दोनों ही अंतर्मुहुर्त की होती है।।१६-१७।। २२२-२२३॥ अब कायस्थिती को कहते हैं - अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीओ एगिदियाण उ चउण्हं । ता चेव उ अणंता यणस्सईए उ बोधव्या ॥१८॥ (२२४) 272
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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