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________________ जीव तत्त्व - अवगाहना सम्यक्त्व प्रकरणम् है - ऋजु तथा वक्र जीव व पुद्गल के अनुश्रेणि गमन से अनुश्रेणि में स्थित उत्पत्तिस्थान में ऋजुगति से एक ही समय में जाता है। उसी समय में आहार ग्रहण करता है। विश्रेणि में स्थित जाता हो तो दो, तीन, चार वक्र गति को प्राप्त प्रथम समय में भुक्त शरीर आहारक तथा अन्त्य समय 'आगामी शरीर आहारक तथा मध्यम के एक दो तीन समयों में यथासंख्य अनाहारक होता है। वक्र इस प्रकार है. - विदिसाउ दिसं पढमे बीए पविसरइ नाडिमज्जंमि । उड्डुं तइ तुरिए य नीए विदिसं तु पंचम ॥ १ ॥ जीव विदिशा से दिशा को प्रथम समय में, दूसरे समय में त्रस नाल में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊपर जाता है। चौथे समय में नीचे तथा पाँचवें समय में विदिशा में जाता है। केवली के द्वारा सम्यक् प्रकार से चारों ओर से प्रबलता पूर्वक आत्म- प्रदेशों से चौदह राजू लोक को पूरा जाता है, अर्थात् लोकाकाश को आत्म प्रदेशों द्वारा हनन करते हैं। धातु अनेकार्थी होने से पूर्ण करना आदि अर्थ होते हैं, वे केवल आयुष को अल्प तथा वेदनीयादि कर्म की अधिकता को जानकर उसके समीकरण के लिए आठ समय का समुद्घात करते हैं। उसकी विधि इस प्रकार है - प्रथमे समये दण्डं स्वदेहविष्कम्भमूर्ध्वमधश्च लोकान्तगामिनम् । कपाटमथ चोत्तरे तथा समये मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ संहरन्ति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमे तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ ( प्रशमरति - २७३, २७४) प्रथम समय में अपने शरीर की चौड़ाई प्रमाण लोकान्त से लोकान्त गामी अर्थात् ऊपर से नीचे तक आत्म-प्रदेशों को दण्ड के आकार का बनाते हैं। दूसरे समय में कपाट तीसरे समय में मन्थान तथा चौथे समय में आत्मप्रदेशों को संपूर्ण लोक में व्याप्त बना देते हैं। पाँचवें समय में अन्तरों का संहार करते हैं । छट्टे समय में पुनः मन्थान, सातवें समय में कपाट तथा आठवें समय में दण्ड का आकार बना लेते हैं। विग्रह गति के वक्र समय में अर्थात् तीसरे, चौथे व पाँचवे समय में केवल कार्मण योगी होने से अनाहारक ही होते हैं। उमा - स्वाति वाचक ने भी कहा है - औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ १ ॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२॥ ( प्रशमरति - २७५, २७६ ) प्रथम व अष्टम समय में औदारिक काय योग प्रवृत्त होता है। द्वितीय, षष्ठ व सप्तम समय में औदारिक मिश्र काय योग प्रवृत्त होता है। तीसरे, चौथे व पाँचवें समय में कार्मणकाय योग होता है। अतः इन तीनों समय में नियमा जीव अनाहारी होता है। अयोगियों के सिद्धि गमन के समय में पाँच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण मात्र समय में मन-वचन-काया का निरोध होता है, उस समय तथा सिद्ध अवस्था में जीव अनाहारक होता है। शेष जीव आहारक होते हैं ।। ११ ।। २१७॥ पर्याप्त द्वार कहा गया है। अब तनुमान यानि अवगाहना के कथन का अवसर जानना चाहिए । अतः पृथ्वीकाय आदि की अवगाहना को बताते हैं अद्दामलगपमाणे पुढविक्काए हयंति जे जीवा । ते पारेवयमित्ता जंबुद्दीये न माइज्जा ॥१२॥ (२१८) 271
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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