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________________ जीव तत्त्व सम्यक्त्व प्रकरणम् प्राण इन्द्रिय आदि हैं। पर्याप्तियाँ आहार आदि ग्रहण करने का सामर्थ्य है । तनुमान शरीर का परिमाण है। आयु अर्थात् जीवित है। स्थिती अर्थात् पृथ्वीकाय आदि निकाय में काय की अवस्थिती है। लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष हैं। संयम-योनि अर्थात् सत्य मनोयोग आदि उसके होने से संयम की योनि है । इन सब के प्रस्ताव से जीवों का ज्ञान करना चाहिए ।। ८ ।। २१४ ॥ अब आदि में प्राणद्वार का वर्णन करके हिंसा के स्वरूप को कहते हैं - पंचिंदिय तिविहबलं नीसासूसासआउयं चेव । दसपाणा पन्नत्ता तेसिं विघाओ भवे हिंसा ॥९॥ (२१५) स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रिय, मन-वचन-काया जनित तीन प्रकार का बल अर्थात् शक्ति विशेष, निःश्वासउच्छ्वास अर्थात् हवा का ऊपर नीचे का प्रसार, आयु अर्थात् जीवित- ये दस द्रव्य प्राण तीर्थंकरों आदि द्वारा बताये गये हैं। इन द्रव्य प्राणों का विघात करना हिंसा है। केवल जीव का विनाश हिंसा नही है, क्योंकि जीव तो अप्रच्युत, अनुत्पन्न तथा स्थिर - एक स्वभाव वाला है।।९।।२१५।। अब पर्याप्ति बताते हैं - आहारसरीरिंदिय पज्जत्ती आणपाणभासमणे । चत्तारि पंच छप्पिय एगिंदिय विगल सन्नीणं ॥ १० ॥ ( २१६) १. जिसके द्वारा आत्मा आहार ग्रहण करके खल-रस रूप से परिणमित करता है, वह शक्ति आहार-पर्याप्ति है। २. जिसके द्वारा रसीभूत आहार को सप्त धातु रूप से परिणमित करता है, वह शरीर पर्याप्ति है। ३. जिसके द्वारा धातु-भूत इन्द्रिय रूप से परिणमित होता है, वह इन्द्रिय-पर्याप्त है। ४. जिसके द्वारा उच्छ्वास योग्य वर्गणा द्रव्य को लेकर उच्छ्वास रूप से परिणमित किया जाता है, वह उच्छ्वास पर्याप्ति है। ५. जिसके द्वारा मन - प्रायोग्य वर्गणा द्रव्य को लेकर मन रूप से आलंबन करके छोड़ा जाता है, वह मनः पर्याप्त है। यहाँ वैक्रिय व आहारक शरीर-धारियों के शरीर पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त्त की तथा शेष के एक समय की होती है। औदारिक शरीर-धारियों की आहार पर्याप्ति ही एक समय की होती है, शेष तो प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त की होती है। अब किसके कितनी पर्याप्ति होती है - यह बताते हुए कहते हैं कि एकेन्द्रिय के चार, विकलेन्द्रिय के पाँच तथा संज्ञी जीवों के छः पर्याप्ती होती हैं। विकल में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय तथा असंज्ञी शामिल हैं। ये पर्याप्तियाँ अपने-अपने पर्याप्त नाम कर्म के उदय वाले जीवों में ही संपूर्ण होती हैं। जो अपर्याप्त अवस्था में मर जाते हैं, वे उच्छ्वास आदि पर्याप्ति से अपर्याप्त होते हैं। शरीर - इन्द्रिय आदि पर्याप्ति से अपर्याप्त नहीं होते । जीव पर भव का आयु बाँधकर ही मरते हैं और वह आयुबन्ध शरीर व इन्द्रिय पर्याप्ति के अभाव में नहीं होता || १० || २१६ ॥ आहारादि पर्याप्तियों को कहा गया। क्या सभी जीव आहारक होते हैं अथवा नहीं? इसको बताते हैं - विग्गहगइमायन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धाय अणाहारा सेसा आहारगा जीया ॥११॥ (२१७) विग्रह गति प्राप्त, केवली - समुद्घात में रहे हुए, अयोगी तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं, शेष आहारक होते हैं। विग्रह गति सिद्धान्त भाषा में वक्र गति कही जाती है। यहाँ से भवान्तर में जाते हुए दो प्रकार की गति होती 270
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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