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________________ लेश्या द्वार-संयम द्वार सम्यक्त्व प्रकरणम् जिस काल में जन्तुओं के शरीर, आयु, बल, बुद्धि आदि का हास होता जाता है, वह अवसर्पिणीकाल कहलाता है और यह काल दस कोटा कोटि सागरोपम प्रमाण होता है। जिस काल में जन्तुओं के शरीर, आयु, बल, बुद्धि आदि वृद्धि को प्राप्त होते जाते हैं, उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। यह भी दस कोटा कोटि सागरोपम प्रमाण होता है। इस प्रकार की असंख्याता अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी पृथ्वी-अप्-तेउ-वायु रूप चार एकेन्द्रियों के होती है। वनस्पति काय की तो अनंत अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी जाननी चाहिए।।१८।।२२४॥ यह काय स्थिती सामान्य से कहने पर भी वनस्पति काय रूपी अनन्त काय की जाननी चाहिए, क्योंकि प्रत्येक वनस्पति की तो कायस्थिती भगवान् द्वारा असंख्यकाल की कही गयी है। अब लेश्या द्वार को कहते हैं - किण्हा-नीला-काऊ-तेऊ-पम्हा तहेय सुक्का य । छल्लेसा खलु एया जीवाणं हुंति विन्लेया ॥१९॥ (२२५) कृष्ण, नील, कपोत, तेजो, पभ व शुक्ल ये छः लेश्या जीवों के होती है - यह जानना चाहिए। आत्मा को आठ प्रकार के कर्मों द्वारा जो श्लिष्ट बनाती है, वह लेश्या है। ये कृष्णादि द्रव्य के सन्निधान से अशुद्धतम-अशुद्धतर-अशुद्ध-शुद्ध-शुद्धतर-शुद्धतम परिणाम रूप छः प्रकार की लेश्या जीवों के होती है।।१९।।२२५।। ये दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट हो जावें, अतः उन दोनों को कहा जाता है - मूलं साहपसाहागुच्छफले छिंदपडियभक्खणया । सव्यं माणुस पुरिसे साउह-जुझंत-धणहरणा ॥२०॥ (२२६) किन्हीं छः पथिकों ने क्षुधा से आर्त होकर मार्ग में सैकड़ो शाखाओं-प्रशाखाओं से युक्त फलों के भार से झुके हुए जम्बू वृक्ष को देखा। उनमें से एक ने मूल को, दूसरे ने शाखा को, तीसरे ने प्रशाखा को, चौथे ने फल के आधारभूत गुच्छे को पाँचवें ने फल को तोड़ा। छठे व्यक्ति ने तो पुनः शुद्धतम परिणाम से हवा आदि के द्वारा जो फल नीचे गिर गये थे, उन्हें ही 'पतितभक्षणताम्' सिद्धान्त के अनुसार खा लिया। यहाँ प्रथम कृष्णलेश्या के परिणामवाला द्वितीय नील लेश्या के परिणाम वाला यावत् अन्तिम शुक्ललेश्या के परिणाम वाला जानना चाहिए। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है छः चोरों ने किसी एक गाँव को लूटना प्रारम्भ किया। एक ने सभी तिर्यंच मनुष्यों आदि को, दूसरे ने केवल मनुष्यों को, तीसरे ने केवल पुरुषों को, चौथे ने केवल शस्त्र सहितों को, निहत्थों को नहीं, पाँचवें ने उदासीनों को छोड़कर केवल लड़नेवालों को मारा। किन्तु छट्टे चोर ने तो केवल धन का हरण किया, किसी को मारा नहीं यहाँ लेश्या का उपनय पहले दृष्टान्त के समान जानना चाहिए।।२०।२२६।। अब संयम द्वार को कहते हैं - सामाइयं पढमं छेओयट्ठाणं भये बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥२१॥ (२२७) तत्तो य अहक्खायं सबम्मि जीवलोगंमि । जं चरिऊण सुविहिया यच्वंतियरामरं ठाणं ॥२२॥ (२२८) सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात चारित्र - इन पाँचों चारित्रों को सर्व-जीव लोक में सुविधि से पालकर अजर-अमर स्थान को प्राप्त करते हैं। - 273
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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