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________________ पासत्थादि पांच का वर्णन सम्यक्त्व प्रकरणम् अब आगे विशेषता बताते हैं - आणाइ अयस॒तं जो उवयूहिज्ज जिणवरिंदाणं ।। तित्थयरस्स सुयस्स च संघस्स य पच्वणीओ सो ॥८१॥ (१९५) जिनेन्द्रवरों द्वारा श्लाघनीय आज्ञा के अनुरूप वर्तन नहीं करता हुआ तीर्थंकर का, श्रुत का तथा संघ का प्रत्यनीक होता है।।८१।।१९५।। जो वस्त्र-पात्र आदि की आकांक्षा से उन्मार्ग गामी गृहस्थ का अनुवर्तन करते हैं। उनके प्रति कहते हैं - किं या देइ वराओ मणुओ सुट्ठ वि धणी वि भत्तो वि । आणाइक्कमणं पुण तणुपि अणंतदुहदेऊ ॥८२॥ (१९६) अथवा बिचारा मनुष्य श्रेष्ठ भी, अति पुष्कल भी भोजन आदि देगा, उससे अधिक क्या देगा? और आज्ञा का थोड़ा सा भी अतिक्रमण अनंत दुःख का हेतु है।।८२।।१९६।। तम्हा सइ सामत्थे आणाभटुंमि नो खलु उयेहा । अणुकूलगेयरेहिं अणुसट्ठी होइ दायव्या ॥८३॥ (१९७) क्योंकि आज्ञा का अतिक्रमण अनंत दुःख का हेतु है। अतः सामर्थ्य होने पर अर्थात् आज्ञा के अतिक्रमण के व्यावर्त्तन में समर्थ होने पर आज्ञा भ्रष्ट गृहस्थ अथवा साधु में अनुवर्तन की उपेक्षा न करे अर्थात् उन्हें हित शिक्षा योग्यतानुसार दे। क्योंकि - आणाभंग दर्छ 'मज्जत्था मु' त्ति ठंति जे तुसिणी । अविहिअणुमायेणा एतेसि पि य होइ वयलोवो ॥१॥ अर्थात् आज्ञाभंग को देखकर भी जो मध्यस्थ होकर चुपचाप रहते हैं, उनके अविधि के अनुमोदन से भी व्रत का लोप होता है। अतः अनुकूल तथा इतर अर्थात् प्रिय तथा कठोर वचनों द्वारा भी उन्हें शिक्षा देनी चाहिए।।८३॥१९७।। यहाँ शंका उत्पन्न होती है कि अभी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले बहुत ज्यादा हैं। अतः क्या करना चाहिए इसे बताते हैं - एवं पाएण जणा कालणभाया इहं त सव्ये वि। न सुंदरत्ति तम्हा आणाजुत्तेसु पडिबंधो ॥८४॥ (१९८) इस प्रकार दिखायी देने वाले इस युग में प्रायः करके मनुष्य यानि साधु श्रावक आदि सभी दुःषम काल के अनुभाव से यहाँ भरत क्षेत्र में भव्य नहीं है अर्थात् जिनेश्वर देवों के आज्ञानुवर्ती नहीं है। अतः आज्ञा में युक्त अगर थोड़े भी साधु या श्रावक हैं, तो उनका बहुमान करना चाहिए।।८४।१९८॥ तो, जो आज्ञा का लोप करते हैं, तो उनके साथ क्या वार्ता हो, वह बताते हैं - इयरेसु वि य पओसो नो कायव्यो भवठिई एसा । नवरं वियज्जणिज्जा विहिणा सयमग्गनिरएणं ॥८५॥ (१९९) दूसरे भी जिनेश्वर की आज्ञा से रहित जनों पर द्वेष-मत्सर नहीं करना चाहिए। कर्म की विचित्रता से उन जनों की जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भवस्थिती जाननी चाहिए। बस! इतनी विशेषता है कि सूत्रनीति द्वारा आलाप आदि विधि का त्याग कर देना चाहिए। अर्थात् एक उपाश्रय में रहना (संवास), परिचय (संस्तव), वस्त्रादि का दान तथा ग्रहण का व्यवहार त्याग देना चाहिए। सदा सिद्धान्त में कही हुई नीति के व्यवहार मार्ग में निरत रहना 265
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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