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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पासत्थादि पांच का वर्णन चाहिए।।८५।।१९९।। इसी में विशेष को कहते हैं - अग्गीयादाइन्ने खित्ते अन्नत्य ठिइ अभायंमि । भायाणुवघायणुयत्तणाइ तेसिं तु यसियव्यं ॥८६॥ (२००) अगीतार्थ पार्श्वस्थ आदि द्वारा व्याप्त नगर आदि क्षेत्र में अन्यत्र रहने की जगह का अभाव होने पर भावरूप चारित्र परिणाम के अनुपघात पूर्वक, मन की कलुषता के हेतु रूप उस कलह के त्याग से उनके अनुवर्तन द्वारा वचन-नमस्कार आदि की अनुकूलता के साथ उनके साथ रहना चाहिए। वर क्षेत्रान्त होने पर उनके द्वारा भावित वसती में नहीं रहना चाहिए।।८६॥२००।। अन्यथा जो दोष होता है, उसे बताते हैं - इहरा सपरुवघाओ उच्छोभाईहिं अत्तणो लहुया । तेसि पि पायबंधो दुगं पि एवं अणिटुं ति ॥८७॥ (२०१) अन्यथा ऐसा नहीं करने पर स्व तथा पर का उपघात होता है। तथा प्रबल रूप से जिसकी शोभा चली गयी है, ऐसी आत्मा की लघुता होती है। आदि शब्द से कलह आदि से भी आत्मा की लघुता होती है। गुणी-जनों के प्रति द्वेष भाव रखने से उनके भी पाप का बन्ध होता है। अतः ये दोनों ही अनिष्ट होते हैं।।८७।।२०१।। अब निगमन को कहते हैं - ता दव्दओ य तेसिं अरत्तदुट्टेण कज्जमासज्ज । अणुयत्तणत्थमीसिं कायव्यं किं पि नो भाया ॥८८॥ (२०२) अतः राग द्वेष रहित साधु द्वारा द्रव्य से उनके ज्ञान आदि कार्य को प्राप्त करके कुछ वचन-नमस्कार आदि थोड़ी सी अनुवर्तना के लिए करना चाहिए। लेकिन भाव से कुछ नहीं करना चाहिए। जैसे कि - वायाइ नमुक्कारो हत्थुस्से व सीसनमणं वा । संपुच्छण च्छणं छोभवंदणं वंदणं वावि ॥ (आव. नियुक्ति ११२७) वचन से नमस्कार, हाथ जोड़ना, शीष नमाना, सुखशाता पूछनी, थोभवंदन और वंदन ये सभी क्रियाएँ कार्य की उपस्थिति में सिर्फ द्रव्य मात्र से करे। यहाँ शंका होती है कि पूर्व में इन्हीं के साथ आलाप आदि का निषेध किया गया है, तो अब ऐसा क्यों कहा गया है? तो कहते हैं कि सत्य है। अपवाद मार्ग को आश्रित करके ही ऐसा कहा गया है।।८८।।२०२।। अब उत्सर्ग व अपवाद दोनों में कौन किससे सिद्ध होता है, इसे बताते हैं - उन्नयमविक्ख निलस्स पसिद्धि उन्नयस्स निलाउ । इय अन्नुन्नाविखा उस्सग्गययाय दो तुल्ला ॥८९॥ (२०३) उन्नत की अपेक्षा से निम्न तथा निम्न की अपेक्षा से उन्नत सिद्ध होता है। इसी प्रकार उत्सर्ग व अपवाद दोनों ही अन्यान्य की अपेक्षा से तुल्य है। अतः कोई भी किसी से भी सिद्ध नहीं होता। निशीथ में भी कहा गया है - जावइया उस्सग्गा तावइया चेव हुंति अववाया । जावइया अववाया तावइया चेव उस्सग्गा ॥१॥ जितने उत्सर्ग हैं उतने ही अपवाद हैं और जितने अपवाद हैं उतने ही उत्सर्ग हैं। . 266
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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