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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पासत्थादि पांच का वर्णन पार्श्वस्थ आदि को वन्दन करते हुए न तो निर्जरा होती है, न कीर्ति होती है, किन्तु शरीर को झुकाना आदि काय क्लेश ही होता है। उनके आचार के अनुमोदन से कर्म बन्ध का आगमन होता है। कहा भी गया है - किइकम्मं च पसंसा सुहशीलजणंमि कम्मबंधा य । जे जे पमायठाणा ते ते उववूहिया हुंति ॥ १ ॥ ( आव.नि. १९९२) अर्थात् सुख-शील वाले जनों को कृति कर्म, प्रशंसा आदि जो-जो प्रमाद के स्थान हैं, वे वे कर्मबंध की वृद्धि करते हैं। मूल गाथा में आये हुए आणाइ शब्द का अर्थ आज्ञा भंग आदि है अर्थात् भगवान द्वारा निषिद्ध वंदन आदि करने से आज्ञा का भंग होता है। उन्हें वन्दन करते हुए देखकर अन्य भी वंदन करेंगे, जिससे अनवस्था दोष होता है। उन्हें वंदन किये जाते हुए देखकर अन्यों को मिथ्यात्व होता है। उस कायक्लेश रूपी वंदन से अपनी अथवा देवताओं की विराधना होती है। उन्हें वंदन करने से उनके द्वारा कृत असंयम की अनुमोदना होती है, जिससे संयम की विराधना होती है ।। ७६ ।।१९० ॥ इस प्रकार पार्श्वस्थ आदि को वंदन करने में दोष बताये गये हैं। अब उन्हीं को गुणाधिकों को वंदन कराते हुए जो दोष होते हैं, उन्हें बताते हैं जे बंभचेरस्स वयस्स भट्ठा उड्डुं ति पाए गुणसुट्ठियाणं । जम्मंतरे दुल्लहबोहिया ते कुंटत्तमंटत्तणयं लहंति ॥७७॥ (१९१) जो ब्रह्मचर्य व्रत से भ्रष्ट हैं, वे गुण-सुस्थितों के द्वारा वंदन करवाते हैं तो आनेवाले भवों में पैरों से रहित तथा जन्मान्तर में दुर्लभबोधि वाले होते हैं, वे जन्मांतर में हाथ से रहित, विसंस्थल उरु तथा जंघा वाले होते हैं। ।७७|| १९१ ।। और - पासत्थो ओसन्नो कुसील संसत्तनीय अहच्छंदो । एहिं आइन्नं न आयरिज्जा न संसिज्जा ॥७८॥ (१९२) पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील- संसक्त तथा यथाछंदी इनके द्वारा आचीर्ण को न तो आचरण करना चाहिए और न उनका संसर्ग करना चाहिए । ७८ ।।१९२।। क्योंकि - जं जीयमसोहिकरं पासत्थपमत्तसंजयाईहिं । बहुएहिं वि आइन्नं न तेण जीएण ववहारो ॥७९॥ (१९३) बहुत सारे पार्श्वस्थ प्रमत्त संयती आदि द्वारा प्रवर्तित जो जीत समाचारी आदि अशुद्धिकारी है अर्थात् कर्म मल को दूर करने में असमर्थ है। वह जीत व्यवहार उनके लिए आचरणीय नहीं हैं। क्योंकि सैकड़ों अंधे मिलकर भी देख तो नहीं ही सकते ।। ७९ ।। १९३ ।। किन्तु - - जं जीयं सोहिकरं संयेगपरायणेण दंतेण । इक्केण वि आईनं तेण उ जीएण वयहारो ॥८०॥ (१९४) जो संवेग परायण होकर इन्द्रिय दमन के द्वारा शुद्धि कारी जीत व्यवहार की आचरणा करता है, वह अकेला भी जीत व्यवहार के योग्य है ।। ८० ।। १९४ ।। 264
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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