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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् वसति शुद्धि एक पृष्टि वंश भौमिक होता है, जो लोक में प्रसिद्ध है। वह दो पृथ्वी पर प्रतिष्ठित होता है। उसके चार किनारे चारों कोनों पर रखे जाते हैं। इस प्रकार ये सातों भी मूलगुण है। ये साधु के लिए बनाये गये हों, तो वह वसति आधाकर्मी है। उत्तर गुण दो प्रकार के हैं - मूल-उत्तर गुण तथा उत्तरोत्तर गुण। मूलउत्तर गुण तो सात प्रकार के हैं - १. दण्डक (लकड़ी), २. कट्य आदि, ३. उक्कंवण अर्थात् दण्डक के ऊपर रहा हुआ ऊँचा उड़ने वाला, ४. छादन अर्थात् दर्भादि से आच्छादित करना, ५. लेपन अर्थात् चारों तरफ से भींत को लीपना, ६. दुपार अर्थात् घर का द्वार बड़ा करना अथवा अन्य विधान करना। ७. भूमि अर्थात् भूमिकर्म। विषम भूमि को सम करना - ये परिकर्म मूलगुण उत्तर गुण में रहते हैं। ये पृष्टिवंश आदि चौदह ही अविशुद्ध कोटि में आते हैं। उत्तरोत्तर गुण विशुद्ध कोटि में रहते हुए वसति के उपघात कारक होते हैं। वे इस प्रकार हैं - १. दुमिय अर्थात् पिच्छि से प्रमार्जित करना, २. धूविय अर्थात् दुर्गन्ध होने से अगुरु आदि धूप करना, ३. वासिता अर्थात् कुसुमादि द्वारा पुटवास देना, ४. उद्यतिता अर्थात् रत्न, प्रदीप आदि से प्रकाशित करना। ५. वलिकड अर्थात् क्रूर कार्य से बलि आदि का विधान करना, ६. अवत्तत्ति अर्थात् गोबर, मिट्टी तथा जल से भूमि को उपलिप्त करना, ७. सिक्ता अर्थात् केवल पानी से भूमि को गीला करना। ८. समृष्य अर्थात् प्रमार्जित करना। यह सर्वत्र साधु के लिए प्रक्रमिक है। विशुद्ध कोटि में रहा हुआ अविशुद्ध कोटि में नहीं रहता है। इसी अनुसार से चारों शाल आदि में भी मूल गुण-उत्तरगुण का विभाग जानना चाहिए। यतियों का विहार प्रायः गाँवों में ही होता है। वहाँ इस प्रकार की वसति का असम्भव होने से साक्षात् नहीं कहा गया है। वसति के और भी दोष हैं जो इस प्रकार हैं - अभिकंत मणभिकंताय । वज्जाय महावज्जाय सावज्ज मह अप्पकिरिया य ॥ १. कालइक्कंतु अर्थात् एक मास अथवा चातुर्मास का कल्प पूर्ण हो जाने पर भी वहीं रहना कालातिक्रान्तता काल २. उवटाणा अर्थात् मासकल्प अथवा वर्षाकाल के पूर्ण हो जाने पर अन्यत्र विहार करके क्रमशः दो मास ___ अथवा आठ मास पूरा करके उसी में जाना उपस्थापना होती है। ३. अभिक्रंताय अर्थात् भिक्षुकों के लिए बने हुए नित्य चरक, पाखण्डी या गृहस्थ आदि द्वारा सेवन करने के __ बाद ग्रहण करना अभिक्रांत दोष है। ४. उनके बिना सेवन किये ग्रहण करना अनभिक्रान्त दोष है। ५. अपने लिए बनाया हुआ। साधुओं को देकर स्वयं अन्य को करते हुए वा दोष होता है। कहा भी है236 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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