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________________ वसति शुद्धि सम्यक्त्व प्रकरणम् अत्तट्ट कडं दाउं जईणमन्नं करेइ वज्जाउ। जम्हा तं पुव्वकडं वज्जेइ तुओ भवे वज्जा । ६. महावज्जा अर्थात् श्रमण, ब्राह्मण, पाखण्डी आदि के लिए किया गया महावा है। ७. निर्ग्रन्थ आदि पाँच श्रमणों के लिए बनाया गया सावद्या है। ८. जैन मुनियों के लिए किया गया महासावद्या है। कहा भी है - पासंडकारणा खलु आरंभो अहिणवो महावज्जा समणट्ठा सावज्जा मह सावज्जा य साहूणं ॥ ९. ऊपर कहे हुए समस्त दोषों से वर्जित अपने लिये या जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के लिए जो करायी जाती है, वह अल्प क्रिया शुद्ध है। यह दोष पद्धति पढ़ी हुई होने पर भी अल्प गुण शब्द के अभाववाचक होने से कहा गया है। स्त्री वर्जित अर्थात् जहाँ स्त्रियाँ परस्पर कथा आदि के द्वारा स्थान को दुःषित न करती हो अथवा जिस वसति में रहते हुए स्त्रियों की ध्वनि न सुनी जाती हो। और वे भी साधु के स्वाध्याय की मधुर ध्वनि न सुन पाती हो ऐसे स्थान पर मुनि को रहना कल्पता है। यहाँ पर भी गाथा इस प्रकार है - थी वज्जियं वियाणह इत्थीणं जत्था ठाणरुवाई। सद्दा य न सुयंति तावि य तेसिं न पेच्छंति।। ताणं चेटुंति जहिं मिहो कहाइहिं न वरमित्थीओ। ठाणे नियमारुवं सिय सद्दो जेण तो वज्जे ॥२॥ इन गाथाओं का भावार्थ पूर्व में बताया जा चुका है। कदाचित् विप्रकृष्ट शब्द न भी होवे। यहाँ पर स्यात् शब्द से चलना, ठहरना, क्रीड़ा करना, विलासयुक्त होकर देखना, बहुत प्रकार के श्रृंगार में देखने के लिए भुक्त इतर दोष है। यह भुक्त इतर का मतलब भोग भोगे हुए के लिए स्मृति व नही भोगे हुए के लिए कुतूहल आदि से दोष लगता है। श्लेष्म, मैल आदि गन्दगी तथा लावण्य श्री देह में ही आश्रित है। श्रमण भी गृहस्थ से शतगुणा रूपवान होते हैं। गीत गाते, पढ़ते हुए, हंसते हुए, मंजुल कथन करते हुए इस प्रकार भूषित शब्दों को एकान्त में सुनने से दोष होता है। गंभीर, मधुर, स्फुट व विषय - ग्राहक सुस्वर, स्वाध्याय में रत मुनि के शांत मन में भी मनहारी गायक द्वारा वासना जगा देते हैं। पशु वर्जित अर्थात् गाय, गधी, घोड़ी आदि पशु-स्त्री रहित तथा पण्डक रहित यानि नपुंसक रहित स्थान में रहे, अन्यथा दोष लगता है और वे दोष व्यक्त है। मूल तथा उत्तर गुण से अशुद्ध आधाकर्मी आदि तथा स्त्री आदि सहित स्थान में ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है। जिसे कहते हैं - ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है, लज्जा का नाश होता है, प्रीति की वृद्धि होती है। अतः तपोवन वासी साधु को तीर्थ हानि का निवारण करना चाहिए। बार-बार परस्पर देखने से लज्जा का नाश होता है। आश्वासन आदि कथा द्वारा नित्य आलाप होता है। साधु का तप वनवास में है, लोक में तीर्थ हानि होती है क्योंकि लोक में इसकी प्रवृत्ति नहीं है। पश पण्डक आदि सहित स्थान भोगने से चित्त क्षोभ अभिघात आदि होते हैं। कहा भी है - पसुपंडगेसु वि इहं मोहानलदीवायाण जं होइ । पायमसुहा पवित्ती पुव्वभवष्भासओ तहया ॥१॥ पशु पंडक सहित स्थान में मोह रूपी अग्नि प्रदीप्त होती है। उससे पूर्व भव के अभ्यास से अशुभ प्रवृत्ति प्राप्त होती है। अज्ञान आदि दोष तो सर्वत्र समान ही है। अतः उक्त दोषों से वर्जित वसति का ही सेवन करना चाहिए। कहा भी है - 237
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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