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________________ शय्या, वसति शुद्धि सम्यक्त्व प्रकरणम् गयी है। यह परस्पर विरुद्ध है। तो, इसी को बताते हैं - उस्सग्गेण निसिद्धाणि जाणि दव्याणि संथरे जड़णो । कारणजाए जाए अववाए ताणि कप्पंति ॥१६॥ (१३०) संस्तरण आदि द्रव्यों को आधाकर्मी आदि दोष युक्त ग्रहण करना उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध है। अपवाद मार्ग में अर्थात् ग्लानत्व आदि कारणों का समूह होने से तो वह कल्पता है।।१६।।१३०।। अब अपवाद का क्या स्वरूप है? इसी को बताते हैं - पुढवाइसु आसेवा उपन्ने कारणंमि जयणाए । मिगरहियस्स ठियस्सा अवयाओ होइ नायव्यो ॥१७॥ (१३१) ग्लानता आदि कारण होने पर पृथ्वीकाय आदि में यतना पूर्वक गुरुदोष के त्याग तथा अल्प दोष के आदान रूप होने से परिभोग करना अपवाद मार्ग जानना चाहिए। किसका? इसका उत्तर देते हुए कहते है कि मूल - उत्तर गुण में स्थित साधु का - यह जानना चाहिए। __किसकी तरह? मृग की तरह अज्ञान की साम्यता होने से अगीतार्थ होते हैं। उनसे रहित यानि गीतार्थ। क्योंकि अगीतार्थ साधु उस आसेवा को देखकर, अति प्रसंग देखकर धर्म भ्रष्ट होते हैं।।१७।।१३१।। अब उत्सर्ग व अपवाद के बहुत से विषय का परिज्ञान कराने के लिए उपदेश को कहते हैं - बहुवित्थरमुस्सग्गं बहुविहमववाय वित्थरं नाउं । लंघेऊणुत्तविहिं बहुगुणजुत्तं करिउजाहि ॥१८॥ (१३२) बहुत विस्तार वाला उत्सर्ग है और बहुविध विस्तारवाला अपवाद जानना चाहिए। उक्त विधि को लाँघकर कार्य की उपस्थिति में बहुगुण युक्त गीतार्थ जो करते हैं, वही प्रमाण कहा गया है। कहा भी है - अवलम्बिऊण कज्जं जं किंची आयरन्ति गीयत्था । थोवावराहबहुगुणं सव्वेसि तं पमाणं तु ॥ १॥ (धर्मरत्न प्र. ८५ पंचवस्तु २७९) अर्थात् कार्य का अवलम्बन लेकर गीतार्थ जो कुछ भी आचरण करते हैं, वह थोड़े अपराध तथा बहुत गुणों से युक्त होने से प्रमाण है। इस प्रकार पिण्ड विचार कहा गया।।१८।।१३२।। अब शय्या की शुद्धि को कहते हैं - मूलुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं । सेविज सब्बकालं विवज्जए हुति दोसा उ ॥१९॥ (१३३) जिसके पीठ, वंशमूल, स्तम्भ आदि साधु के लिए न किये गये हो - वह मूल गुण विशुद्ध है और जिस के छादन लेपन आदि साधु के लिए न किये गये हो - वह उत्तर गुण विशुद्ध है। ऐसे मूल व उत्तर गुण से शुद्ध, स्त्रीपशु-पंडग रहित वसति अर्थात् उपाश्रय का सेवन सर्वकाल में करे। इसके विवर्जन में तो दोष है।।१९।।१३३।। अब वसति शुद्धि को कहते हैं - पिट्ठीवंसो दोधार-णाओ चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणे हुयवेया एसा उ अहागडा यसही ॥२०॥ (१३४) पृष्ठ भाग वंश मूल दो पृथ्वी पर स्थित हो चार मूल किनारे हों - ऐसी मूलगुण से युक्त यथाकृत वसति होती है। इस गाथा की विस्तृत व्याख्या इस प्रकार है 235
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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