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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् गोचरी के दोषों की व्याख्या पंक्ति में स्थित थे। एक बार वे कहीं एकाकी गोचरी के लिए पधारें। तब लोभ नामक पिशाच द्वारा किसी तरह छल लिये गये। उसके वश में होकर मुनि ने यह प्रतिज्ञा की कि आज मेरे द्वारा सिंह केसरी मोदक ही उपादेय होगा। इप्सित मोदक के प्राप्त न होने पर दूसरा कुछ भी ग्रहण न करते हुए प्रत्येक घर में प्रवेश करके वे मुनि निकल जाते थे। लोभ ग्रह द्वारा अत्यधिक प्रबल होकर शाम का समय प्राप्तकर विकल हो गये। तब वे धर्मलाभ के स्थान पर घर के आँगन में सर्वत्र सिंह केसरी, सिंह केसरी इस प्रकार कहने लगे। इस प्रकार घूमते हुए रात्रि का एक प्रहर बीतने को आया। पर विकलता से विह्वलता के कारण उन्हें कुछ भी भान न रहा। तब शासन देवी ने उन मुनि की वैसी अवस्था देखकर विचार किया - कोई मिथ्यादृष्टि देवता आदि इन्हें छल न लेवें। अतः उन्हें जाग्रत करने के लिए शासनदेवी ने मार्ग में एक घर बनाकर मनुष्य स्त्री का रूप धारण कर लिया एवं वहाँ बैठ गयी। मुनि को आया हुआ देखकर शीघ्र ही मध्य खण्ड से उठकर सिंहकेसरी मोदकों से भरा हुआ थाल लेकर सम्मुख आयी। चार जातकों से मिश्र स्व-इच्छित मोदकों को देखकर मुनि ने कुछ समय स्वस्थता को प्राप्त किया। उसने भी थाल पृथ्वी पर रखकर उन्हें वन्दना करते हुए कहा - भगवन्! पौरुषी का प्रत्याख्यान मुझे करवाइये। मुनि ने भी कालमान को जानने की इच्छा से ऊपर देखकर निशा जानकर उससे कहा - भद्रे! क्या रात्रि हो गयी है? उसने कहा - क्या रात्रि में भी मुनि भिक्षा के लिए भ्रमण करें? तब जाग्रत होते हुए मुनि कुंजर लज्जित हुए। उन्होंने कहा - भद्रे! तुमने मुझे अच्छा चेताया। छलना आदि के द्वारा शायद मेरा व्रत भी भंग हो जाता। अतः मैं इस अतिचार की गुरु के पास आलोचना करूँगा। तब शासन देवी ने अपने दिव्य रूप को प्रकाशित करके श्रेयसी भक्ति से मार्ग पर आये हुए मुनि को वन्दना की। फिर नमन करके कहा - मेरे द्वारा आपके बोध के लिए ही यह सब किया गया। इस प्रकार कहकर क्षणमात्र में ही देवी अदृश्य हो गयी। साधु ने भी गुरु के पास जाकर अपनी शुद्धि के लिए प्रायश्चित ग्रहण किया। इष्ट प्राप्त करने के लिए यह लोभ पिण्ड अनर्थ देने वाला है। कितने मुनियों को प्रबोध देने के लिए शासन देवता आयेंगे? अतः साधु द्वारा मन से भी लोभ पिण्ड का चिन्तन नहीं करना चाहिए, बल्कि उससे दूर ही रहना चाहिए। यह लोभपिण्ड की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार चारों कथाएँ पूर्ण हुई। ११. दान के पूर्व या पश्चात्, दाता की स्तुति से, संस्तव से, स्वजन के सम्बन्ध घटित करने से (पूर्व के जननी जनक आदि संबंध एवं पश्चात् के सास-ससुर आदि संबंध यहाँ घटित नहीं होते) जो आहार प्राप्त हो, वह पूर्वपश्चात् संस्तव पिण्ड है। १२. होमादि से साध्य विद्या, मन्त्र, चूर्ण आदि से प्राप्त पिण्ड विद्यापिण्ड कहलाता है। १३. पाठ सिद्ध मन्त्र आदि से प्राप्त पिण्ड मंत्र पिण्ड है। १४. चूर्ण, मञ्जन आदि से प्राप्त पिण्ड चूर्ण पिण्ड है। १५. पाँवों में लेपन आदि विधि द्वारा पिण्ड प्राप्त करना योग पिण्ड है। १६. यति को गर्भस्तम्भ, गर्भाधान आदि द्वारा आहार प्राप्त करना मूल दोष है। इससे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता उत्पादना के सोलह दोष बतायें।।८-९।।१२२-१२३।। अब एषणा के दोषों को बताते हैं - संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मीसेय । अपरिणय लित्त छष्टिय एसणदोसा दस हवंति ॥१०॥ (१२४) 232
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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