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________________ लोभ पिण्ड की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् रोका जा सकता। उसकी दृढ प्रतिज्ञा जानकर उन दोनों ने पिता के द्वारा सिखायी हुई बात कही "हमारी आजीविका की व्यवस्था तो करके जाइए! हमे आपके बिना किसका आधार है?" उसने भी वह स्वीकार कर लिया। क्योंकिसन्तो यद् दीनवत्सलाः । सज्जन दीन पर वत्सल भाव वाले होते हैं। तब लौटकर उसने भरत का नाटक वीर, शान्त आदि अद्भुत रसों द्वारा सात दिन में करने का निर्णय किया। सिंहरथ राजा को उसके श्वसुर द्वारा कहा गया। राजा ने भी कहा शीघ्र ही मेरे सामने नृत्य पेश किया जाय। तब नट ने कहा - इसकी सामग्री अति दुष्कर है। राजा ने कहा- तुम कहो। मैं संपादित करवाऊँगा । नट ने कहा- अगर पुनः यह नाटक कराया जाय तो पाँचसो गुणी पात्रों की आवश्यकता होगी। अतः पाँचसों राजपुत्र एव पाँचसो पात्र समर्पित कीजिए । प्रभो! संपूर्ण सार युक्त वस्त्र अलंकार आदि भी उनके लिए चाहिए। उनके द्वारा जो कुछ सामग्री व राजपुत्र माँगे गये, वे सभी राजा ने नाटक को देखने के कौतूहल से दे दिये। तब उन सभी पात्रों से युक्त भरत राजा के वेष में आषादाभूति ने राजा के सामने नाटक करना शुरु कर दिया। उसने मागध, वरदाम तथा प्रभास तीर्थ को साधा तथा उसके सेनापति ने सिन्धु नदी के तट को साधा। फिर वैताढ्य गुफा तथा तमिस्र गुफा से निकलकर मेघकुमार आदि को जीतकर मध्यखण्ड को वश में किया। वृषभकूट पर्वत पर अपना नाम लिखा । फिर खण्ड प्रपात गुफा से पर्वत की ओर मुड़ा । जैसे नदी के तट को सेनापति ने वश में किया था वैसे ही उसके तट को भी स्वीकार किया । परम निधि प्राप्त की तथा बारह वर्षीय अभिषेक हुआ। फिर उस भरत चक्री ने साम्राज्य सुख से युक्त विपुल भोगों को छः खण्ड के अधिपति होकर भोगा । इत्यादि अभिनय को अत्यधिक अद्भुत रस से युक्त करते हुए को देखकर राजा परिवार सहित अत्यन्त परितोष को प्राप्त हुआ । तब राजा तथा अन्य जनों द्वारा इतना दान दिया गया कि उस प्राप्त वित्त से एक पर्वत जितना ढेर लग जाय । नाट्य रस - आवेश से राजा ने दान से सभी को परिधान व धन से युक्त कर दिया। उन दोनों नट पुत्रियों ने वह सारा धन ग्रहण कर लिया। तब आषादा भूति भरत की तरह आदर्श गृह में प्रवेश करके अभिनय क्रम से मुद्रा रत्न को गिराते हुए साधु वेष ग्रहणकर अखिल पात्रों के साथ सहसा सिर का पंचमुष्टि लोच करके धर्मलाभ आशीष राजा को देकर निकलने लगे। तब राजा आदि सभी लोगों ने कहा ! यह क्या है? इस प्रकार बोलते हुए उसका हाथ पकड़कर आदर पूर्वक लौटने के लिए कहने लगे। आषादाभूति ने कहा अगर वह भरत दीक्षा लेकर वापस लौटा हो, तो मैं भी लौट आऊँगा । तब उसके सर्वथा पारमार्थिक भाव जानकर उसके लौटने के आग्रह को छोड़कर उसे जाने के लिए छोड़ दिया। कुल के अभिमान तथा लज्जा आदि कारणों से वे राजपुत्र भी व्रत के भाव का अभाव होने पर भी व्रत को नहीं त्याग पाये। बाद में क्रम पूर्वक उनमें भी व्रत के भाव उत्पन्न हो गये । आषाढ़ाभूति ने गुरु के पास जाकर दुष्कृत की आलोचनाकर उग्र तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया। फिर सर्वकर्मों का क्षय करके परमार्थ रूपी शिवपद को प्राप्त किया। बढ़ते हुए ज्ञान-विज्ञान युक्त आषादाभूति के लिए भी माया पिण्ड दोषरूप ही सिद्ध हुआ । अतः मोक्ष सुख को चाहनेवालों द्वारा इसका दूर से ही त्याग करना चाहिए । यह माया पिण्ड का उदाहरण हुआ । अब लोभ-पिण्ड के दृष्टान्त को कहते हैं - अत्यधिक माहात्म्य से युक्त श्रुत- पारंगत भावना से भावित आत्मा वाले एक धर्मसूरि गुरु हुए है। उनका एक शिष्य था, ,जो संपूर्ण कल्मल से कषित (कर्ममल को धोया हुआ), संपूर्ण साध्वाचार में कुशल, सुदृढ़ क्रियावान, निर्ममत्वी, निस्पृह, क्षमावान्, सरल, निरहंकारी, पवित्र, सत्यवक्ता एवं ब्रह्मव्रत पालन में तत्पर थे। दोनों ही (बाह्य अभ्यंतर) परिग्रह से रहित तप-संयम में लीन आत्मावाले, नित्य अध्ययन में आसक्त सुसाधुओं की अग्रिम 231
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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