SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गोचरी के दोषों की व्याख्या सम्यक्त्व प्रकरणम् इनका भावार्थ इस प्रकार है१. आधाकर्म आदि की शंका से आहार लेना शंकित दोष है। २. सचित्त पृथ्वी आदि से हाथ खरड़े हुए हो उसके द्वारा दिये जाते समय आहार लेना म्रक्षित दोष है। ३. पृथ्वीकाय आदि पर रखा हुआ आहार लेना निक्षिप्त दोष है। ४. सचित्त फल आदि से ढका आहार लेना पिहित दोष है। ५. दान-पात्र, अयोग्य आहार, सचित्त पृथ्वी आदि पर रखकर उसी पात्र से दिया हुआ दान संहत दोष युक्त ६. अन्धे आदि अयोग्य दायकों से आहार लेना साधुओं के लिए अकल्पनीय होने से दायक दोष है। ७. सचित्त से मिश्र आहार लेना उमिश्र दोष है। ८. जो सम्यक् प्रकार से अचित्त न हुआ हो, शस्त्र अपरिणत हो, वह अपरिणत दोष है। ९. दही आदि का लेप वाला आहार लेना - लिप्त दोष है। यह बिना कारण ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि कहा भी है - धित्तव्यमलेवकडं लेवकडेमाहु पच्छकम्माई । नय रसगेहि पसंगो न य भुत्ते बंभपीडा य ॥१॥ अर्थात् बिना लेप किया हुआ आहार ही ग्रहण करना चाहिए। लेप युक्त आहार में पश्चात् कर्म की संभावना है। लेपरहित आहार लेने से रस-गृद्धि का प्रसंग नहीं होगा और, न ही ब्रह्म पिड़ा होगी। यहाँ पश्चात् कर्म का मतलब यह है कि लेप वाला आहार लेने पर बाद में हाथ धोना आदि क्रिया होगी। अतः अलेप वाला आहार ही गुणयुक्त है। १०. घी आदि छाँटे गिराते हुए देवे तो छर्दित दोष लगता है। ये एषणा के दस दोष गृहस्थ व साधु दोनों से लगते हैं। सभी मिलाकर बयालीस दोष होते हैं। इन दोषों से रहित विशुद्ध पिण्ड ही ग्रहण करना चाहिए।।१०॥१२४॥ उस विशुद्धि के विषय में विशेष रूप से कहते हैं - एयदोसविमुक्को जईणं पिंडो जिणेहिं णुनाओ। सेसकिरियाठियाणं एसो पुण तत्तओ नेओ ॥११॥ (१२५) इतने दोषों से विवर्जित मुनियों का पिण्ड तीर्थंकरों द्वारा आज्ञापित है। पिण्ड शुद्धि उत्तर गुण रूप होने से इसके क्रिया में स्थित मूल गुण का व्यापार अनुष्ठायी है। पुनः यह परमार्थ से ज्ञेय है क्योंकि मूल के अभाव में उत्तर अकिंचित्कर होता है।।११।।१२५॥ गृहस्थ द्वारा आधाकर्मी आहार भक्तिपूर्वक बनाये जाने पर ग्रहण करते हुए शुद्ध साधु के तीन दोष होते हैं। वे कौन से दोष है - इसी को बताते हैं - जस्सट्ठा आहारो आरंभो तस्स होइ नियमेण । आरंभे पाणियहो पाणियहे होड़ ययभंगो ॥१२॥ (१२६) जिसके लिए आहार का आरम्भ होता है, उसके आरंभ में नियम से प्राणिवध होता है और प्राणिवध में व्रत भंग होता है। भावार्थ यह है कि यद्यपि साधु को पकाना आदि व्यापार नहीं है, फिर भी मेरे लिए यह निष्पन्न है - यह जानते हुए भी निःशंक होकर भोगते हुए अनुमति के संभव से दोष होता है।॥१२॥१२६।। - 233
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy