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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् आर्द्रककुमार की कथा अतः हस्ति-तापस नाम से विख्यात हुए थे। वे लोग बहुत जीवों के क्षय के भय से अपने आप को धार्मिक मानते हुए वे लोग हरिण, तीतर, मत्स्य आदि - जंगली जंतुओं को तो क्या चावल के कणों को भी नहीं खाते थे। उन भूखे तापसों द्वारा मारने के लिए एक पर्वत के समान बड़ा हाथी भारी साँकलों से बाँधकर लाया था। उस हाथी ने ५०० साधुओं से युक्त आर्द्रक मुनि को लोगों द्वारा भक्तिपूर्वक भूमि पर मस्तक रखकर वन्दन किये जाते हुए देखा तो लघु कर्मी होने से हाथी को विवेक उत्पन्न हुआ। उसने विचार किया कि अगर मैं बन्धन रहित हो गया तो, मैं भी इन्हें वन्दन करूँगा। मुनि के प्रभाव से शीघ्र ही उसके बन्धन टूट गये। अर्गला रहित हाथी मुनि को वन्दना करने के लिए दौड़ा। उसको आता हुआ देखकर लोग इधर-उधर भाग गये। पर उठे हुए वृक्ष की तरह महासत्त्वशाली मुनि वहीं ठहर गये। तब उस हाथी ने अपना कुम्भस्थल भूमि पर रखकर भक्ति से नमन किया। श्रावक की तरह हाथों से पाँव स्पर्श करने के समान सूंड से चरणस्पर्श किया। फिर उठकर वह गजेन्द्र निर्निमेष नयनों द्वारा बार-बार गर्दन मोड़कर देखते हुए जंगल में प्रवेश कर गया। उन मुनि के अतिशय को देखकर वे तापस भी असहिष्णु होकर महावाद में उपस्थित हुए। पर मुनि द्वारा वे क्षण भर में ही जीत लिये गये। तब मुनि ने उन्हें धर्मदेशना द्वारा प्रतिबोधित किया। क्योंकि - सर्वजनीनाः स्युः साधवः साम्यमास्थिताः। साधु सभी जनों में साम्यस्थिती वाले होते हैं। फिर दमन चित्त वाले तापसों को प्रभु वीर के चरणों में भेज दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अरिहन्त के पभहस्त से दीक्षा ग्रहण की। तब हाथी की बेड़ियाँ टूटना, तापसों को बोधित करना तथा गौशालक पर विजय प्राप्ति सुनकर राजा श्रेणिक उन मनहारी मुनिवर से आकृष्ट होकर तत्क्षण अभयकुमार के साथ वन्दना करने आया। आईक कुमार ऋषि को देखकर भक्ति रूपी शिखर से युक्त होकर तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुति करते हुए नमन किया। हे सर्वसंसार त्यागी! हे गुणरूपी नागरिकों के महानगर! कुतीर्थ रूपी हाथियों के बीच केसरी की तरह दृप्स! आपको नमस्कार हो। सभी का कल्याण करनेवाले, संपूर्ण पापों का हरण करने वाले धर्मलाभ रूपी आशीष को प्रीतिपूर्वक देकर साधु ने उनकों आनंदित किया। फिर सामने बैठकर राजा ने कहा - प्रभो! उस प्रकार हाथी के बंधन का टूटना मुझे बहुत प्रभावित करता है और विचित्र लगता है। मुनि ने भी कहा- राजन्! हाथी का छूटना दुष्कर नहीं है। चरखे के सूत के बन्धन से छुटकारा पाना मुझे दुष्कर लगता है। राजा के पूछने पर मुनि ने शुरु से अपना चरित कहा। यह सुनकर राजा ने सपरिवार स्तुति की। जो पतित हैं, प्रायः वे ही रण-आँगन में पतित होते हैं। और वीर वही है, जो गिरकर भी शस्त्र लेकर पुनः खड़ा होता है। प्रभो! आप ही एक वीर हैं, जिन्होंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। केवल श्री अब आपके अति निकट है और मोक्ष भी दूर नहीं है। फिर आईक कुमार मुनि ने सौनन्देय को कहा - तुम मेरे अकारण वत्सल रूप धर्म बन्धु हो। तुम्हारे द्वारा उपहार के बहाने से जो पहले अर्हत् प्रतिमा भेजी गयी थी, उसको देखने से उसी समय मुझे जाति - स्मृति ज्ञान की योग्यता प्राप्त हुई। जो किसी के द्वारा किसी को भी कभी भी नहीं दिया गया, ऐसा अर्हत्-धर्म तुम्हारे द्वारा मुझे उपाय पूर्वक दिया गया। अनार्यता के अन्धकूप से बुद्धिशाली तुम्हारे द्वारा मेरा उद्धार किया गया है। हे महाभाग! इसी कारण मैं आर्य मण्डल देख रहा हूँ। संसार रूपी समुद्र में जो इस प्रव्रज्या रूपी भाव को मैंने पाया है, उसमें हे अभय! निश्चय ही तुम्हारा प्रतिबोध ही कारण है। धर्मसर्वस्व के दान से मैं तुम्हारा कर्जदार हूँ, पर तुम्हें आशीर्वाद से बढ़कर और क्या दूँ? अभी भी हे महाभाग! तुमसे यही आशा है कि मेरी तरह तुम बहुत से जीवों का भवसागर से उद्धार करोगे। 216
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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