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________________ शुद्ध प्ररूपक की व्याख्या सम्यक्त्व प्रकरणम् फिर श्रेणिक राजा, उनका पुत्र अभयकुमार तथा अन्य जन उन साधु को नमन करके जैसे आये थे, वैसे ही चले गये । फिर विनय गुण के सागर मुनि आर्द्रक ने राजगृह आकर चरम तीर्थेश को नमन करके [प्रभु के पास विधिवत् चारित्र ग्रहणकर] विमल ज्ञान को प्राप्त करके, चिर काल जगती पर विहारकर सकल कर्मों को निर्मूलकर शिवपद को प्राप्त किया। इस प्रकार आर्द्रककुमार का कथानक पूर्ण हुआ ।। ३० ।। ९८ ।। अब पूर्व में प्ररूपित शुद्ध प्ररूपक का ही विस्तार करते हुए कहते हैं जइ वि हु सकम्मदोसा मणयं सीयंति चरणकरणेसु । सुद्धप्परूयगा तेण भावओ पूअणिज्जत्ति [णिज्जंति ] ॥३१॥ (९९) यद्यपि स्वकर्मदोष से चरण-करण में थोड़ा सा भी खेदित होते हैं, फिर भी शुद्ध प्ररुपक रूपी गुण होने से वे भाव से पूजनीय होते हैं । । ३१ ।। ९९ ।। इस प्रकार मार्गशुद्धि के प्ररुपित होने पर विवेकी जन जो करते हैं, उसको कहते हैं - एवं जिया आगमदिट्ठिदिट्ठ सुन्नायमग्गा सुहमग्गलग्गा । गयाणुगामीण जणाण मग्गे लग्गंति नो गड्डरीयापवाहे ॥३२॥ (१००) इस प्रकार उक्त न्याय से जीव अर्थात् भव्यप्राणी आगम दृष्टि से दृष्ट सामान्य रूप से सुज्ञात तथा विशेष रूप से उत्सर्ग मार्ग-अपवाद मार्ग के द्वारा शुभमार्ग में लगे हुए प्राणी गतानुगामी लोगों के मार्ग में गडरीया के प्रवाह के समान नहीं लगते हैं। अर्थात् आगमोक्त मार्ग का ही अनुसरण करते हैं । । ३२ ॥ १०० ॥ अब "जिस पथ से महापुरुष गुजरे, वही पथ है" इस प्रकार जो लोक प्रवृत्ति को ही श्रेयसी मानते हैं, उनके प्रति कहते हैं - गंतेणं चिय लोगनायसारेण इत्य होअव्वं । बहुमुंडाइययणओ आणा इतो इह पमाणं ॥ ३३॥ (१०१) एकान्त रूप से अर्थात् सर्वात्मना रूप से लोगों का अर्थात् अधिक जनों का ज्ञात दृष्टान्त ही सार युक्त है, प्रधान है - ऐसा नहीं जानना चाहिए, क्योंकि मोक्ष मार्ग के विचार में बहुत सारे मुनियों के वचन से ही यदि लोकप्रवृत्ति बलवती होगी, तो यह आगम वचन भी नहीं होगा। जैसे कि - - कलहकरा डमरकरा असमाहिकरा अनिव्वुइकरा य । होर्हिति भरहवासे बहुमुंडे अप्पसमणे य ॥१॥ कलहकारी, उपद्रवकारी, असमाधिकारी, अनिवृत्तिकारी मुण्डित इस भारत वर्ष में बहुत होंगे, पर श्रमण अल्प होंगे। अतएव इस कारण से तीर्थंकर की कही हुई आज्ञा ही प्रामाण्य के विचार में प्रमाण है ।। ३३ ।। १०१ ।। और भी कुछ लोग ऐसा कहते हैं - - बहुजणपवित्तिनिमित्तं इच्छंतेहिं इह लोईओ चेव । धम्मो न उज्झियव्यो जेण तहिं बहुजणपवित्ती ॥३४॥ (१०२) बहुजन की प्रवृत्ति के निमित्त से यहाँ धर्म विचार में लौकिक शैव आदि अन्य की सत्ता वाले की इच्छा करते हैं। लेकिन उस कारण से बहुत जनों की प्रवृत्ति रूप धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए ।। ३४ ।। १०२ ।। इस प्रकार स्थित होने पर उनको कहते हैं - 217
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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