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________________ आर्द्रककुमार की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् शोच्यानामपि ते शोच्या ये ज्ञात्वाऽपि न कुर्वते । पर उन शोचनीय लोगों से उनकी अवस्था ज्यादा शोचनीय है, जो जानकर भी जिन वचनों का आचरण नहीं करते हैं। अतः संताप करने की अपेक्षा अभी ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता हूँ। फिर तप अग्नि द्वारा स्वर्ण की तरह अपनी आत्मा को निर्मल बनाता हैं। जिनको तप, क्षमा, ब्रह्मचर्य व्रत क्रिया आदि प्रिय होते हैं. वे बाद में चलकर भी शीघ्र ही अमरालय को पहुँच जाते हैं। प्रातःकाल प्रिया को पूछकर तथा अपने स्वजन व राजा आदि को पूछकर सिंह की तरह गुफा से निकलकर व्रत रूपी वेष को प्राप्त हुआ। फिर आईककुमार ऋषि राजग्रह की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग के अन्तराल में उन्होंने उन ५०० सामंतों को देखा। वे भी अचानक कुमार को देखकर पहचानकर विस्मित रह गये। उनके द्वारा प्रणाम किये जाने पर आर्द्रकमुनि ने पूछा - आपलोग वन में कैसे? उन्होंने कहा - स्वामी! आप तो हमें विश्वास दिलाकर भाग गये। तब लज्जित होते हुए हम राजा के पास नहीं गये। अपितु पृथ्वी पर घूम-घूमकर आपको खोजते हुए निर्विग्न होकर चोरी की चर्या द्वारा जीवन जी रहे हैं। मुनि ने उनको प्रतिबोधित करने के लिए कहा - अहो! तुमलोगों ने यह पाप की आजीविका क्यों धारण की? महान् कष्ट आ जाने पर भी करने योग्य कार्य ही करना चाहिए। दोनों लोक में विरोधी अकर्तव्य कभी भी नहीं करना चाहिए। उन्होंने भी कहा - कुमार! वनवास से निर्विग्न होकर हम कुटुम्ब से मिलने के लिए राजा के पास जायेंगे। तब आर्द्रकमुनि ने कहा - वनवास करते हुए क्या कष्ट है? संसार वास में रहते हुए होनेवाले कष्टों का चिन्तन क्यों नहीं करते हो? और भी, नरकों में, तिर्यंचों में, मनुष्यों में तथा अधम ऋद्धि में (देव भव में) भी अनेक कष्ट भोगें है। यह जीव उन कष्टों रूपी लुटेरों द्वारा कई बार लुटा जा चुका है। स्वार्थ निष्ठ कुटुम्ब कितने ही किये और कितने ही छोड़ दिये। कुछ कर्म की लघुता से ही हमें मनुष्य जन्म मिला है, तो फिर स्वर्ग-अपवर्ग के फल को प्रदान करनेवाले धर्म को क्यों न ग्रहण करें? जैसे मैं पहले भी तुम्हारा स्वामी था, वैसे ही अब भी हूँ। अतः मेरे समान संयम को ग्रहण करो। हलुकर्मी होने से उन्होंने भी आईक महामुनि के उपदेश से धुल-धुलकर स्वच्छ हुए वस्त्र को धूप से वासित करने के समान अन्तर को वासित किया। फिर अभ्यर्थना करके सभी सामन्तों ने प्रव्रज्या स्वीकार की। स्वामी के पास स्वामी के सेवक की तरह वृत्ति का आचरण करने लगे। इस प्रकार उनको प्रबोधित करके प्रव्रजित करके आईक मुनि उनके साथ प्रभु वीर को वन्दन करने के लिए राजगृह की ओर जाने लागे। जाते हुए बीच मार्ग में गोशालक उनके सम्मुख आया। प्रबोधित करके अपने मत में शामिल करने के लिए उसने उनसे वाद प्रारंभ किया। उनके साक्षी अनेक सभ्य हुए। पृथ्वीचर व नभचर कौतूहल से उत्तान नेत्र वाले हो गये। गोशालक ने कहा - हे साधु! तपस्या से क्यों खेदित होते हो? शुभ-अशुभ से भरे हुए भव में सब कुछ नियति से होता है। तब आईकमुनि ने कहा - भद्र! ऐसा मत बोलो। केवल नियति ही नहीं है, दूसरा पौरुष भी है। अगर तुम ऐसा नहीं मानते, तो फिर वाद क्यों करते हो? (क्योंकि वाद करना भी तो पुरुषार्थ ही है।) फिर कवल भी मुख में मत रखो। (शबवद्) पर्वत की तरह निश्चल हो जाओ। सभी का मूल नियति है, तो सभी वही देगा। लेकिन नियति भी प्रायः पौरुष के बिना फलीभूत नहीं होती। और भी, जैसे आकाश से पानी बरसता है वैसे ही भूमि के खनन से भी होता है। अतः नियति और पौरुष दोनों को कैसे नहीं मानते हो? इस प्रकार आर्द्रक ऋषि द्वारा गोशालक पर विजय प्राप्त की गयी। उनके पास में रहे हुए सभीने उनकी जयजयकार की। जहाँ हाथी के दाँतों की कीलें गाड़ी गयी है, तथा हाथी की चर्म ही बिछायी हुई है, ऐसे हस्ति - तापस आश्रम में आर्द्रकऋषि आये। वे एक हाथी को मारकर वहाँ निवास करनेवाले तापस बहुत काल तक उसे खाते थे, 215
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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