SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सुमार्ग का वर्णन तं न जओ अंगाइसु सुब्बइ तबन्नणा एवं ॥२१॥ (८९) कुछ भवाभिनन्दी कहते हैं कि सूक्ष्मविचार अर्थात् द्रव्यस्तव-भावस्तव के अधिकारियों की विचारणा आदि श्रावकों के सामने न पढ़नी चाहिए, न ही कहनी चाहिए। क्योंकि संपूर्ण समाचारी जानकर, शिथिल यतिजन को देखकर कदाचित् श्रावक मन्दधर्मी हो जायेंगे। क्योंकि अंग-उपांग आदि में वर्णित जो सुना जाता है, उसका आचरण नहीं करना है।।२१।।८९॥ ऐसी मान्यतावालों को आगमोक्त श्रावकों का स्वरूप समझाया गया है। लट्ठा गहिअट्ठा पुच्छियअट्ठा विणिच्छियट्ठा य । अहिगयजीवाईया अचालणिज्जा पययणाओ ॥२२॥ (९०) तह अट्ठिअट्ठि मज्जाणु रायरत्ता जिणिंदपन्नत्तो । एसो धम्मो अट्ठो परमट्ठो सेसगमणट्ठो ॥२३॥ (९१) सूत्ते अत्थे कुसला उस्सग्गवयाइए तहा कुसला। यवहारभावकुसला पययणकुसला य छट्ठाणा ॥२४॥ (९२) निरन्तर श्रवण से लब्ध अर्थवाले, सम्यग् अवधारण से गृहीत अर्थ वाले, कुछ संशय होने पर पूछने वाले, तत्त्व का अर्थ प्राप्त होने से विनिश्चित अर्थवाले, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष तत्त्वों को जानने से अधित जीवादि वाले प्रवचन से अचलित होते हैं। उस प्रकार से अस्थि, उसके अन्दर रहा हुआ होने से अस्थिमज्जा, प्रस्तावित जिन मत के प्रेमरूपी अनुराग से वासना की साधर्मिता होने से रक्तरंजित की तरह, वे अर्थात् अस्थि, अस्थिमज्जा, अनुराग - रक्त उनके द्वारा साक्षात् आसेवित होने से जिनेन्द्र प्रज्ञप्त धर्म - अर्थ है। वस्तुरूप से उपादेय होने से परमार्थ - तत्त्वरूप है अर्थात् परम गति का हेतु है। शेष शिव, शाक्य आदि प्रणीत तो अनर्थ वस्तुरूप है। स्व-अध्ययन योग्य अच्छी तरह व्यक्त सूत्र के उच्चारण में कुशल होने से सूत्र कुशल, निरन्तर सिद्धान्त के अर्थ का श्रवण करने से अर्थ कुशल उत्सर्ग - अपवाद आदि कार्यों में कुशल होने से उत्सर्ग - अपवाद कुशल, धर्म, अर्थ, काम व लोक - इन चार प्रकार के व्यवहार में कुशल होने से व्यवहार कुशल, बाह्य - आभ्यन्तर चेष्टाओं के अभिप्राय को जानने के साथ अभिनव धर्मों के स्थिरीकरण को करने में भावकुशल - इस प्रकार इन छ: स्थानों को आश्रित करके जो कुशल होते हैं, वे प्रवचन कुशल हैं।।२२-२३-२४।।९०-९१-९२।। जो सिद्धान्त का लोप करके उन्मार्ग का उपदेश देते हैं, साधुओं की निन्दा करते हैं, उनके विश्वासघात को कहते हैं - पुच्छंताणं थम्मं तंपि य न परिक्खिउं समत्थाणम् । आहारमित्तलुद्धा जे उमग्गं उयइसंति ॥२५॥ (९३) सुगई हणंति तेसिं थम्मियजणनिंदणं रेमाणा । आहारपसंसासु य निंति जण दुग्गइं बहुयं ॥२६॥ (९४) भव्यों द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर गृहस्थ तथा यति के भेद से भिन्न धर्म को कहते हुए मुग्ध बुद्धि से परीक्षा करने में समर्थ नहीं होते हैं। इससे उनकी अत्यन्त अनुकम्पा कही गयी है। अशन आदि आहार तथा उपलक्षण से वस्त्र, पात्र, पूजा आदि में लुब्ध होकर सिद्धि सुख से विमुख होते हुए जो यथाछन्दी साधु अशुद्ध दान आदि रूप उन्मार्ग का उपदेश करते हैं। जैसे - ये विवेकी है, इनको शुद्ध मार्ग का उपदेश सुनाऊंगा तो ये मुझे आधाकर्म आदि दोष से दूषित आहार आदि नहीं देंगे। 206
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy