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________________ नन्दीषेण की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् इसके द्वारा उनकी अत्यधिक क्लिष्टता कही गयी है। जो कि कहा गया है - जह सरणमुवगयाणं जीवाण निकिंतइ सिरे जो उ । एवं आयरिओ वि हु उस्सुतं पन्नवंतो उ ॥१॥ अर्थात् जैसे शरण में आये हुए जीवों के सिर को कोई काटता है, उसी प्रकार आचार्य भी उत्सूत्र की प्ररूपणा करते हुए उनके धर्म रूपी मस्तक का छेदन करते हैं। पूछे जाने वालों को उन्मार्ग में स्थापित करते हुए उनकी (सुननेवालों की) सुगति का नाश करते हैं। शुद्ध आहार, वस्त्र, पात्र, उपाश्रय आदि ग्रहण करने वाले यति आदि धार्मिक जनों की, 'ये मायावी हैं। इस प्रकार से निन्दा करते हुए आहार आदि की प्रशंसा द्वारा अर्थात् तुम आहार के लिए कल्पवृक्ष के समान हो-इस प्रकार श्रावक की प्रशंसा द्वारा तथा "आहार-दान ही उत्तम है" इस प्रकार कहते हुए मनुष्यों को बहुत सी दुर्गतियों में ले जाते हैं।।२५-२६॥९३-९४॥ अब जो शरीर-सामर्थ्य आदि से रहित होने से क्रिया में शिथिल है, पर चित्त की थोड़ी सी भी शुद्धि से परलोक के अभिमुख है, उनको उपदेश देते हुए कहा जाता है - हुज्ज हु यसणपत्तो सरीर दोबल्लयाइ असमत्थो । चरणकरणे अशुद्धे शुद्धं मग्गं परुविज्जा ॥२७॥ (९५) भले ही शरीर व्यसन प्राप्त हो अर्थात् दुःख मय रहा हो, इन्द्रिय अर्थ में अशक्त हो, वृद्धता रोग आदि के द्वारा शरीर की दुर्बलता से क्रिया करने में असमर्थ हो। व्रतादि चरण क्रिया तथा पिण्डविशुद्धि आदि करण क्रिया में स्वयं अतिचार सहित स्थित रहने पर भी ज्ञानादिरूप शुद्ध मार्ग की प्ररुपणा करे। किसकी तरह? तो कहते हैं कि श्रेणिक-पुत्र नन्दीषेण की तरह शुद्ध प्ररुपणा करे। उनकी कथा इस प्रकार है - || नन्दीषेण की कथा || जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नामक देश था। उसमें राजगृह नामक नगर था। वहाँ राजा श्रेणिक राज्य करता था। सुनन्दा उसकी प्रिया थी। (न्याय) विक्रमशाली अभयकुमार आदि उसके पुत्र थे। एक बार वहाँ तीन छत्र की अतिशय कान्ति से युक्त त्रैलोक्य ऐश्वर्य पर शासन करनेवाले श्रीमान् वीर जिनेश्वर पधारें। भगवान गुणशील चैत्य में विराजे। बारह प्रकार की पर्षदा वहाँ यथास्थान बैठी। श्री वीर प्रभु का समवसरण सुनकर श्रेणिक राजा भी पुत्रों सहित सर्वसामग्री के साथ प्रभु को नमन करने आये। प्रीतिपूर्वक प्रदक्षिणा करके स्वामी को प्रणिपात करके व्याख्यारूपी अमृत का पान करने के लिए प्रभु के सामने राजा श्रेणिक बैठ गये। भगवान ने मेघ-गर्जन युक्त गम्भीर सर्व भाषानुगामी वाणी में धर्मोपदेश दिया। अहो! संसार रूपी कान्तार अपार व अति दारुण है। जिनधर्म रूपी रथ के बिना भव से भरे हुए लोगों का तारण कठिन है। मनुष्य कुएँ को खोदने वाले की तरह कुकर्मों द्वारा नीचे जाता है और महल को बनाने वाले की तरह सुकर्मों द्वारा ऊपर जाता है। अतः विद्वानों द्वारा संसार के कारण रूप कर्मों का उच्छेदन करके प्रयत्नपूर्वक संसार के तिराने वाले कर्मों को करना चाहिए। भव्य - प्राणियों द्वारा भव के हेतु रूप प्राणिवध, मिथ्याभाषण, स्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह-इन पाँच आश्रवों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। इनका सर्वथा त्याग करना शक्य न हो, तो देश से त्याग करना चाहिए, जिससे निर्वाण रूपी पदवी दूर न रहे। यह देशना सुनकर श्रेणिक राजा के पुत्र नन्दीषेण के मन में आश्रव के सर्वथा त्याग की भावना उद्भुत हुई। अपने आवास - स्थान पर आकर व्रताकांक्षी नन्दीषेण ने स्वच्छ मन से श्रेणिक राजा से पूछा। पिता से अनुमति पाकर संसार से उद्विग्न मन वाले उसने अनित्य विभूति का त्यागकर सनातनी विभूति को प्राप्त करने की इच्छा की। 207
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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