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________________ सुमार्ग का वर्णन सम्यक्त्व प्रकरणम् यहाँ अयतः का मतलब छः जीवनिकाय की विराधना के कारण संयम से भ्रष्ट कहा गया है। अविरत अर्थात् श्रावक भी नहीं है तथा लिंगधारी होने से दोनों मार्गों से च्युत है। यह भाव हुआ॥१५॥८३।। जो मढ शब्द कहा गया है. उसको दष्टान्त से दृढ करते हैं - मंसनियित्तिं काउं सेवड 'दंतिक्कय' ति थणिभेया। इय चइऊणाऽऽरंभ परवयएसा कुणइ बालो ॥१६॥ (८४) (पंच वस्तु गाथा ९९) कोई अविवेकी मांस का त्यागकर शब्द भेद से (यज्ञ का मांस पवित्र मानकर) मांस का सेवन करते है। उसी प्रकार अज्ञानीजीव आरंभ परीग्रह का त्याग करके देवादि के बहाने से आरंभ परिग्रह करते है।।१६।।८४॥ चैत्य की विचारणा में प्रवर्त्तमान धर्मार्थी रूप होने से वे कैसे बाल - (अज्ञ अनुशासित करने के लिए कहते हैं - तित्थयरुद्देसेण वि सिढिलिज्ज न संजमं सुगइमूलं । तित्थयरेण वि जम्हा समयंमि इमं विणिदिढें ॥१७॥ (८५) तीर्थंकर के उद्देश्य से भी सुगति के मूल संयम को शिथिल न करे। इसीलिए सिद्धान्त में तीर्थंकरों के द्वारा विशेषरूप से निर्दिष्ट है।।१७।।८५।। इसी को कहते हैं - सबरयणामएहिं विभूसियं जिणहरेहिं महियलयं । जो कारिज समग्गं तउ वि चरणं महिड्डियं ॥१८॥ (८६) यदि सर्व रत्नों से युक्त जिन घरों द्वारा इस पृथ्वी वलय को विभूषित कर दिया जाय, तो भी सन्मार्ग रूपी चारित्र उससे भी महर्द्धिक है अर्थात् मेरु - सर्षव की उपमा द्वारा महान् है॥१८॥८६॥ यदि ऐसा है, तो मकड़ी के जालों आदि को हटाने के लिए के साधु के लिए आज्ञा दी है वह कैसे? यह बताते अन्नाभावे जयणाइ मग्गनासो हविज्ज मा तेण । पुवकयाऽऽययणाइसु ईसिं गुणसम्भवे इहरा ॥१९॥ (८७) अन्य श्रावक जैसे कि भद्रक आदि के अभाव में मार्गनाश अर्थात् तीर्थ का नाश न हो - इस कारण से पूर्वकृत आयतन आदि में, चिरन्तन जिन भवनों में, आदि शब्द से बिम्बों में इषद्गुण संभव होने पर अर्थात् किसी के द्वारा जिन धर्म की प्रतिप्रत्ति आदि थोड़े से गुण का सम्भव होने पर ही यतना पूर्वक यानि आगम में कही गयी क्रिया द्वारा मकड़ी के जाले आदि को हटाना चाहिए।।१९।।८७।। इहरा अर्थात् अन्य था। मतलब यह है कि पूर्वोक्त से विपरीत होने पर क्या होता है, उसे बताते हुए कहते चेइअकुलगणसंघे आयरियाणं च पययणसुए य । सव्येसु वि तण कयं तवसंजममुज्जमंतेण ॥२०॥ (८८) आचार्यों के चैत्य, कुल, गण, संघ तथा प्रवचनश्रुत इन सभी में उन साधुओं के लिए तप संयम में उद्यमवंत होना ही उनका कृत्य है। यहाँ एक आचार्य की सन्तति को कुल तथा तीन कुलों के समुदाय को गण कहा है। 'तेण कयं' अर्थात् साधुओं के लिए किया गया कृत्य जानना चाहिए। तप संयम रूप से उद्यत साधु के लिए।।२०।८८॥ अब कलिकाल के वश में रहे हुए शिथिल जनों के अभिप्राय को कहकर उसका निराकरण करते हैं - केइ भणन्ति भन्नइ सुहुमवियारो न सायगाण पुरो । 205
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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