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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सुमार्ग का वर्णन तो जइणो जगगुरुणो पुप्फाइयं न इच्छंति ॥११॥ (७९) छह जीवनिकायों का संयम जिससे नाश को प्राप्त होता है, इस कारण यति जगद् गुरु तीर्थंकरों की पुष्पादि से अर्चना नहीं करते हैं। उपलक्षण से संपूर्ण द्रव्यस्तव की इच्छा नहीं करते है। अर्थात् द्रव्य स्तव की उनको भगवान् की आज्ञा नहीं है। ।।११।।७९।। विशिष्ट भाव स्तव का हेतु द्रव्यस्तव रूपी पूजा है। वह पूजा यति के लिए क्यों निषिद्ध है? इसी को बताते तं नत्थि भुवणमझे पूआकम्मं न जं कयं तस्स । जेणेह परमआणा न खंडिआ परमदेवस्स ॥१२॥ (८०) भुवन अर्थात् जिन मंदिर के मध्य साधु को द्रव्य पूजाकर्म की आज्ञा नहीं है। जो उसको नहीं करता है, उसके द्वारा प्रवचन में परम देव अर्थात् तीर्थंकर भगवान् की परम आज्ञा खंडित नहीं होती है।।१२।।८०॥ अतः द्रव्य स्तव से भाव स्तव बड़ा है - यह निश्चित हुआ। पर इनमें कितना अन्तर है, उसे कहते है - मेरुस्स सरिसवस्स य जत्तियमितं तु अंतरं होई। भायत्थय दव्यत्थयाण अंतरं तत्तियं नेयं ॥१३॥ (८१) मेरु का तथा सरसों के दाने का जितना अंतर होता है, उतना ही अंतर द्रव्य स्तव तथा भावस्तव का जानना चाहिए।।१३।।८।। यह कैसे होता है, उसे बताते हुए कहते हैं - उक्कोसं दव्यथयं आराहिय जाइ अच्युयं जाव ।। भावत्थएण पावइ अंतमुहुत्तेण निव्वाणं ॥१४॥ (८२) द्रव्यस्तव की आराधना करने वाला जीव उत्कृष्ट यावत् अच्युत देवलोक तक जा सकता है। भाव स्तव का आराधक जीव अंतर्मुहूर्त में निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।।१४।।८२।। इस प्रकार होने पर - मुत्तूणं भावथयं दव्यथए जो पयट्टए मूढो । सो साहू वत्तव्यो गोअम! अजओ अविरओ य ॥१५॥ (८३) भाव स्तव को छोड़कर जो मूढ़ द्रव्य-स्तव में प्रवृत्त होता है, हे गौत्तम! वह साधु अयति तथा अविरति है। गौतम शब्द से भगवान् गौतम गोत्रीय इन्द्र भूति को सम्बोधन करते हैं। इसी के द्वारा यह महानिशीथ सूत्र को सूचित करता है। भययं! जो भावत्थयं गहाय दब्बथयं कुज्जा सो किमालविज्जा? गोयमा! अस्संजइ या, अविरएइ या, अप्पडिहयपच्चक्खायपावक्कमेड़ या निद्धम्मेइ या, भट्टपइन्नेड़ वा, देवच्चएइ या, देवभोइए वेत्यादि ॥ जैसे - भगवन्! जो भाव स्तव को छोड़कर द्रव्यस्तव को करता है, उसे क्या कहा जाता है? हे गौतम! असंयति, अविरति, अप्रतिहत अप्रत्याख्यात, पापकर्मी, अधर्मी, भ्रष्ट प्रतिज्ञ, देवपूजक(पूजारी), देवभोई (देव का खानेवाला) इत्यादि जानना चाहिए। 1. वर्तमान में तीर्थ संस्थापक बननेवाले भगवंत की आज्ञा की आराधना करते हैं या विराधना? वे स्वयं सोचें! उनको सहायक बननेवाले भी सोचें। 2. काउण जिणाययणेहिं मण्डियं सयलमेइणीवट्ट दाणाइचउक्केण वि सुदु वि गच्छिज्ज अच्चुअं न परओ त्ति (महानिशीथ) जिनमंदिरों से संपूर्ण पृथ्वी भूषित करने से एवं दानादि चारों प्रकार के धर्म का सेवन कर लेने पर भी श्रावक अच्युत देवलोक से ऊपर नहीं जा सकता। 204
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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