SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुमार्ग का वर्णन सम्यक्त्व प्रकरणम् जइ विन आहाकम्मं भत्तिकयं तह वि वज्जयन्तेहिं । भत्ती खल होई कया इहरा आसायणा परमा ॥१॥ यद्यपि चैत्य आधाकर्म रूप नहीं है अर्थात् साधुओं के निमित्त नहीं बनाया गया है। तो फिर क्यों बनाया गया? तो कहते हैं कि भक्तिकृत है अर्थात् अर्हत् भक्ति के निमित्त से बनाया गया है। फिर भी वहाँ निवास का त्याग करने वालों के द्वारा अर्हत में निश्चय रूप से कृत भक्ति होती है। अन्यथा तो वहाँ निवास करते हुए परम आसातना को करता है।।७।।५।। अतः चैत्य में वास नहीं करना चाहिए। यहाँ तक का वर्णन कुमार्गगामियों ने जो चैत्य बनाने के विषय में कहा था उनको प्रत्युत्तर के रूप में कहकर अब सुमार्ग की प्ररूपणा करते हैं। भावत्थयदव्यत्ययरुयो सिवपंथसत्यवाहेणं । सवन्नुणा पणीओ दुविहो मग्गो सिवपुरस्स ॥८॥ (७६) शिव-पथ के सार्थवाह रूपी सर्वज्ञ द्वारा भाव स्तव तथा द्रव्य स्तव रूपी दो मार्ग शिवपुर के बताये गये हैं। यहाँ विशेषता यह है कि केवल भाव से स्तवपूजा-भाव-स्तव रूप यतिधर्म है। भगवान के आज्ञा की पालना से चारित्र भी भगवान की ही पूजा है। जो कहा गया है - अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्तिस्तपोज्ञानमष्टपुष्पी प्रचक्षते ॥१॥ अष्टपुष्पी समाख्याता, स्वर्गमोक्षप्रसाधिका । अहर्निशं तु साधूनां देवपूजाऽनया मता ॥२॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्म, अपरिग्रह, गुरु भक्ति, तप व ज्ञान - ये अष्ट पुष्पी कहे जाते हैं। यह अष्टपुष्पी स्वर्ग व मोक्ष को सिद्ध करने वाली है। अतः साधुओं को अहर्निश इसी अष्टपुष्पी द्वारा देवपूजा मानी गयी है। द्रव्य से स्तव यानि पूजा-यह द्रव्य स्तव है और यह श्रावक का धर्म है।॥८॥७६।। अब भावस्तव तथा द्रव्यस्तव का स्वयमेव स्वरूप कहते हैं - जावज्जीयं आगमविहिणा चारित्त पालणं पढमो । नायज्जियदव्येणं बिओ जिणभवण करणाइ ॥९॥ (७७) यावत् जीवन आगम विधि द्वारा चारित्र का पालन करना प्रथम भाव स्तव है। न्याय से अर्जित धन द्वारा जिन भवन करवाना यह दूसरा द्रव्य स्तव है।।९।७७॥ अब 'जिन भवन करण' आदि - इस पद का वर्णन जिणभवणबिंबठायण-जत्तापूआय सुत्तओ विहिणा। दव्वत्थउ त्ति नेयं भावत्थय कारणत्तेण ॥१०॥ (७८) जिन भवन अर्थात् मन्दिर में बिम्ब-स्थापना, यात्रा-रथ निकालना, अष्टाह्निक आदि पूजा, सूत्र से आगम को आश्रित करके विधि द्वारा किया जाना-यह द्रव्यस्तव जानना चाहिए। भाव स्तव का कारणरूप अर्थात् यह भाव - स्तव का जनक होता है।।१०।।७८॥ अब यह द्रव्य - स्तव सावध - रूप होने से यति के योग्य नहीं है। इसी के प्रतिपादन के लिए कहते हैं - छण्हं जीवनिकायाण संजमो जेण पायए भंगं । कहता 203
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy