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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् वज्र स्वामी की कथा उन्हें खुश कर सकूँ। बालक-पालन में स्नेहपूर्वक कष्ट को सहते हुए सुख दुःख को समान रूप से माता ही मानती है, अन्य नहीं। अतः सभी शरीर धारी माता के कर्जदार हैं। उसके सैकड़ों उपकारों की अर्पणा कैसे हो सकती है। अतः आराध्य की तरह उसके विचारों के अनुकूल बनकर पुरुषार्थ करके ही कदाचित् उसके प्रति कृतज्ञ बन सकूँ। ___ गुरुदेव ने कहा - महाभाग! इस प्रकार का दृष्टिवाद तो साधुवेश में तथा साधु-आचार का पालन करने पर ही पढ़ाया जाता है। हे श्रेष्ठ द्विज! साधु का वेष लेने के बाद भी क्रमशः सूत्र पढ़ाया जाता है। आर्यरक्षित ने कहा - प्रभो! फिर मुझे साधु वेष प्रदान कीजिए। विलम्ब करने से क्या फायदा! दृष्टिवाद पढ़ने के लिए मन में गहरी उत्कण्ठा है। पर व्रत लेकर यहाँ रहने पर राजा व नागरिक आदि अत्यन्त अनुराग के कारण मेरे व्रत का त्याग करवा देंगे। तब गुरुदेव ने मन में विचार किया कि यह अपनी प्रज्ञा द्वारा भविष्य में शीघ्र ही अध्ययन करके समस्त श्रुतों का पारगामी होगा। अतः गुरुदेव महारत्न के निधान की तरह उसको लेकर शीघ्र ही अपने शिष्य-परिवार सहित वहाँ से अन्यत्र चले गये। श्रीमद् वीरप्रभु के तीर्थ में श्रमणों में सर्वप्रथम शिष्य निष्फेटिका (चोरी) हुई। अर्थात् बिना आज्ञा से दीक्षा देने का कार्य सर्वप्रथम हुआ। यानि प्रथम ग्यारह वर्ष के उस बालक आर्यरक्षित को दीक्षा दी। सामायिक चारित्र को उसने निश्चल होकर यावज्जीव तक ग्रहणकर उस व्रत में उसी समय से दृढीभूत हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है - मिषापेक्ष्येव बोधः स्यात् प्रायो हि लघुकर्मणाम् । प्रायः करके लघुकमी लोग किसी बहाने से ही बोध को प्राप्त होते हैं। उभयशिक्षा ग्रहण करके आर्य रक्षित मुनि शीघ्र ही गीतार्थ होकर अनेक प्रकार के तप से तपित होते हुए परीषह रूपी शत्रुओं को जीतते रहे। ग्यारह अंग का अध्ययन उन्होंने एक श्लोक को याद करने की तरह लीला मात्र में कर लिया। गुरु देव के पास में रहते हुए दृष्टिवाद भी मानो कुछ ही क्षणों में ग्रहण कर लिया। गुरु ने भी शिष्य की प्रज्ञा के महासागर को जानकर कहा कि तुम आगे का अध्ययन वज्र गुरुदेव के पास जाकर करो। आर्यरक्षित ने कहा - प्रभो! वज्रगुरु कौन हैं? अभी कहाँ हैं? तब गुरुदेव ने कहना प्रारंभ किया, क्योंकि - पुण्याय सतां कथा । श्रेष्ठ जनों की कथा पुण्य के लिए ही होती है। इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सर्व देशों का शिरोमणी अवन्ती नामक देश है। वहाँ तुम्बवन नामक मनोरम सन्निवेश है। वहाँ की लक्ष्मी युक्त धरती दिव्य स्त्रियों तथा पुरुषों रूपी रत्नों की खान है। उसी नगर में परम आर्हत् इभ्य पुत्र श्रावक धनगिरि नाम व अर्थ से तादात्म्य रूपवाला था। युवा होने पर भी उसका हृदय शम रूपी सिन्धु से आप्लावित था। वैराग्य रूपी लहरों के उद्यत होने से वह कामदेव से भी पराधीन नहीं था। निवृति रूपी लक्ष्मी की चाहना करता हुआ वह अन्य स्त्रियों से पराङ्गमुख था। कहा भी गया है - न हि कल्पद्रुमाकाङ्क्षी करीरे कुरुते रतिम् । अर्थात् कल्पवृक्ष की इच्छा करने वाला कंटीले वृक्ष की आकांक्षा नहीं करता। उसके माता पिता उसे मोह श्रृंखला में बाँधने के लिए जिस-जिस कन्या से उसकी सगाई करने की बात करते, वह धनगिरि स्वयं जाकर उस-उस कन्या के पिता को कह देता कि मैं दीक्षा लूँगा, अतः आप अपनी कन्या मुझे न दें। इधर महा-इभ्य श्रेष्ठि धनपाल की आत्मजा सुनन्दा रूप-गर्व से अति गर्वित होती हुई अपने पिता से बोली - धनगिरि मेरे वे हो चुके हैं - अतः आप मुझे उनको दे देवें। अबला होने पर भी मैं अपने चातुर्य बल से उन्हें रोक 180
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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