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________________ आर्यरक्षित आचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् खण्डित इक्षयष्टि लेकर आया। वह आर्यरक्षित से मिलने के लिए उसी के पास आ रहा था। उसके घर से निकलते ही वह सामने ही मिल गया। अंधकार की वजह से तथा बहुत समय से उसे नहीं देखा हुआ होने से आर्यरक्षित को नहीं पहचान पाने के कारण पिता के मित्र ने उसी से पूछा - तुम कौन हो? आर्यरक्षित ने कहा - मैं सोमदेव का पुत्र हूँ। उसने भी शीघ्र ही सुनकर प्रमुदित होते हुए कहा - भ्राता-पुत्र! कल तक तो तुम्हें छोटे से तालाब के पानी की तरह उछलते कूदते देखा था। बुरा मत मानना इस प्रकार प्यार से उसे गले लगाकर स्वागत पूर्वक वार्तालाप किया। फिर कहा - वत्स! ये इक्षु खण्ड मैं तुम्हें उपहार में भेंट करने के लिए लाया था। उसने कहा - तात! मेरी माता को आप ये इक्षु खण्ड दे देना। मैं बाहर जा रहा हूँ। ऐसा कह देना। तब उस द्विज ने जाकर आर्यरक्षित की माँ से कहा - माता! तुम्हारा पुत्र मुझे सामने मिला। सुबह-सुबह ही हाथ में इक्षुदण्ड लेकर मैं सम्मुख आया। उसने कहा कि माँ को कह देना कि तुम्हारा पुत्र चला गया। इस प्रकार आर्यरक्षित का कहा हुआ द्विज ने कहा। रुद्रसोमा ने भी आनन्दपूर्वक विचार किया कि जाते हुए मेरे पुत्र को यह शुभ शगुन हुआ है। निश्चय ही वह नौ पूर्व का ज्ञान ग्रहण करेगा। अथवा दृष्टिवाद के अध्याय के साथ अंगों में नौ पूर्व का तथा दसवें पूर्व का खण्ड रूप ज्ञान अर्जित करेगा। उधर आर्यरक्षित ने इक्षु वाटिका में जाकर क्षणभर विचार किया कि बिना जाने में गुरु के पास कैसे जाऊँ? उनके पास जाने की उपचार-विधि तो मैं जानता नहीं। अगर चला भी जाऊँ तो गुरु-गृह में रहे हुए लोगों द्वारा उपहास का पात्र बनूँगा। अतः कुछ क्षण यहीं बाहर ही ठहर जाता हूँ। कार्यवशात् किसी वन्दना करनेवाले के साथ ही अन्दर जाऊँगा। इस प्रकार विचारकर वह द्वार पर ही द्वारपाल की तरह रुक गया। कहा भी है - अविमृश्य न विद्वांसः कुर्वते किञ्चनापि यत् । विद्वान् जन बिना विचारे कुछ भी कार्य नहीं करते। वहाँ पर खड़ा होकर उन सुसाधुओं के स्वाध्याय रूपी सुधी-रस को वह बुद्धिमान खुले कानों द्वारा तृष्णा से आर्त व्यक्ति की तरह पीने लगा। तभी वहाँ पर ढड्डर नामक एक श्रावक वन्दना करने के लिए आया। जिस प्रकार मकर संक्रांति में सूर्य उत्तर दिशा का संग करता है उसी तरह उस श्रावक ने उत्तरासङ्ग किया। तीन बार नैषेधिकी करके वह प्रविष्ट हुआ। फिर उच्च स्वर में ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण किया। फिर गुरु व सुसाधुओं को विधिपूर्वक वन्दन करके अंचल से आसनकर प्रतिलेखन करके गुरु के सामने बैठ गया। आर्यरक्षित ने भी उसी के साथ प्रवेश करके देख-देखकर अपनी तीव्र प्रज्ञा से उसी-उसी विधि को उसके साथ किया। फिर वह सोम-पुत्र ढड्वर श्रावक को बिना वन्दन किये वहीं बैठ गया। उसे देखकर गुरु ने जाना कि यह कोई नया श्रावक है। आदरपूर्वक धर्मलाभ का आर्शीवाद देकर गुरुदेव ने पूछा - तुम्हें धर्म की प्राप्ति कहाँ से, किससे हुई है? उसने विस्मित होकर यथातथ्य भी इन श्रावक से हई है परंत आपको यह कैसे मालम हआ? यह मैं जानना चाहता है। क्योंकि मैंने तो रेखामात्र भी विधि इन श्रावक से कम नहीं की। गरु ने कहा - हे भद्र! तमने जो देखा, बिल्कल वही किया। मैंने तम्हारी महाप्रज्ञा को जान लिया है. इसमें कोई शक नहीं। लेकिन अपने से बडे श्रावक को भी वन्दन करना चाहिए। लेकिन यह तमने देखा नहीं. अतः किया भी नहीं। इसी से ज्ञात हआ कि तम नये हो। मनियों ने गरु से कहा किप्रभो! यह आर्यरक्षित है। रुद्रसोमा का यह पुत्र वेद रूपी समुद्र का पारगामी हो गया है। यह चौदह विद्यास्थानों को पढ़कर जब आया, तो राजा ने इसे हाथी पर आरुढ़ करवाकर नगर-प्रवेश करवाया था। फिर आरक्षित ने कहा कि - प्रभो! मेरी माता ने आपके पास दृष्टिवाद पढ़ने के लिए भेजा है। दृष्टिवाद से रहित अन्य सभी विद्याओं को पढ़ने के बावजूद भी मेरी माँ मुझे सुरूप होते हुए भी दृष्टिहीन पुरुष की तरह मानती है। अतः कृपा करके मुझे शीघ्र ही दृष्टिवाद का ज्ञान प्रदान करें। अतः माता के वचन का अनुष्ठान करके 179
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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