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वज्र स्वामी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् लूँगी। धनपाल श्रेष्ठि ने भी अपनी पुत्री की स्वयं वरण की लालसा जानकर महा-उत्साह पूर्वक अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करवा दिया। सुनन्दा के ज्येष्ठ भ्राता तथा धनपाल के पुत्र समित सिंहगिरि गुरु के पास पूर्व में ही दीक्षा ले चुके थे। सुनन्दा ने दीक्षा लेते हुए धनगिरि को अपनी चातुर्यता के योग से अर्ज करके रोक लिया। भोगावली कर्म के विपाक से पत्नी की प्रार्थना के कारण धनगिरि ने कितना ही काल अपनी प्रिया के साथ बिताया।
इधर पूर्व में अष्टापद पर्वत पर श्री गौतम स्वामि के पास जिसने पुंडरीक अध्ययन सुनने का लाभ प्राप्त किया था, उस वैश्रमण यक्ष का सामानिक जृम्भक देव च्युत होकर सुनन्दा की कुक्षि में अवतरित हुआ। अपनी पत्नी को गर्भवती जानकर धनगिरि ने उससे कहा - हे कान्ते! अब तुम्हें भविष्य के आलम्बन स्वरूप पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। भोग्य कर्म के सम्बन्ध भी तुम्हारे साथ घटित हो चुके हैं। कहा भी है -
नाऽदत्त्वा स्वफलं कर्म व्यपयात्यर्हतामपि ।
स्व-फल को भोगे बिना अरिहन्तों के कर्म भी नष्ट नहीं होते। और मुझे चारित्र रूपी लक्ष्मी जीवन से भी ज्यादा प्रिय है। अतः उसकी प्रीति से मोक्ष रूपी लक्ष्मी का संबंध घटित होगा।
यह कहकर उसकी अनुमति लेकर धनगिरि ने सर्प के समान कञ्चकी रूपी प्रिया को छोड़कर सिंहगिरि गुरु के पास जाकर दीक्षा ले ली। उनके साथ ग्रामानुगाम पुरानुपुर विहार करने लगे। परीषहों को सहन करते हुए तीव्र तपस्या से आत्मा को तपाने लगे। वृक्ष रूपी उद्यान के सहोदर की तरह विनय गुण आदि वृक्षों से युक्त जीवन उद्यान था। रत्नगिरि से रत्नों को ग्रहण करने की तरह उन्होंने श्रुत सागर से श्रुतरत्नों को ग्रहण किया।
इधर समय आने पर सुनन्दा ने भी एक अद्भुत पुत्र को जन्म दिया। रोहण पर्वत पर अंकुरित रत्नों की कान्ति के समान कान्तिवाला वह पुत्र था। सुनन्दा की सखियों ने आनन्दपूर्वक बालक को देखते हुए वाक् पटुता से तत्काल बालक को उद्देश्य करके कहा - अगर आज इसके पिता ने दीक्षा न ली होती, तो वैसा कोई बहुत बड़ा जन्मोत्सव मनाया जाता। अगर घर में पुरुष न हो, तो वह उत्सव भी निरुत्साह युक्त होता है। क्योंकि -
छन्नादित्यं किमाऽऽभाति दिवसेऽपि नभोऽङ्गणम्?
अर्थात् दिन होने पर भी क्या आच्छादित सूर्य गगनांगन को प्रकाशित करता है? अर्थात् पूर्ण रूप से नहीं कर सकता।
शुरुआत में ही प्रायः क्षीणकर्मी होने से बालक ने एकाग्रमन वाले संज्ञी रूप से उस कथा को सुन लिया। उसने विचार किया कि मेरे पिता व्रती हो गये हैं। इस प्रकार तत्क्षण प्रबुद्ध होने से सद्य-प्रसूत बालक को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व भव में भवभ्रमण कि विषमता को सुना हुआ होने से उसे याद करके वह पिता के मार्ग पर जाने की सोचने लगा। उस बाल मन वाले बालक ने विचार किया कि मेरी माता आलम्बन हीन हो जाने से व्रत की अनुमति प्रदान नहीं करेगी। कदाचित् मेरे प्रति गाद उद्विग्नता पैदा हो जाय, तभी अनुमति प्रदान कर सकेगी। अतः माता में उद्वेग पैदा करने के लिए वह शिशु पूरी रात रोता रहा। उसने माता को न सुख से सोने दिया और न खाने दिया। नये-नये मधुर स्वर में गाये जानेवाले गानों से, झूला झूलाने से, पालना हिलाने से, खेल आदि की वस्तुएँ दिखाने से, बाहों में लेकर पुचकार ने से, हँसाने से. मख चमने से. गले लगाने से उसका रोना किसी भी तरह से नहीं रुका। इस प्रकार लगातार छः महीने तक रोते रहने से सुनन्दा ही नहीं उसके परिजन पड़ोसी आदि भी उद्विग्न हो गये।
उसी समय उस नगर में धनगिरि आर्य आदि से युक्त सिंहगिरि गुरु पधारें। धनगिरि तथा आर्य समित ने पूछा - यहाँ हमारे स्वजन है। अगर आपकी आज्ञा हो, तो उनके घर पर जाकर उनकी वन्दना ग्रहण करे। इस प्रकार के वचन सुनकर उस समय के शुभ शकुन व्यवहार को जानकर गुरु ने दोनों को कहा - आज महान भावी लाभ
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