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________________ मूलदेव की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् आज भी इसने मुझे सत्तू नहीं दिया। प्रातःकाल जरुर देगा। यह देने की भावना का होना निश्चय ही सूदुष्कर है। इस तरह आशा के वशीभूत तीन दिनों में उस अरण्य को पार कर लिया। तब द्विज ने मूलदेव से कहा- भद्र! मैं चलता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो । मेरे गाँव का यह मार्ग है। मूलदेव ने भी कहा-अच्छा! तुम्हारी सहायता से मैंने यह अरण्य पार कर लिया। जैसे कि नाव से महानदी पार की जाती है । मेरा नाम मूलदेव है। मैं वेण्णातट नगर जाऊँगा । कहीं भी सुनो कि मैंने राज्य प्राप्त किया है, तो सुनकर मेरे पास चले आना । हाँ, अपना नाम तो बताओ। उसने कहा- मेरा नाम तो सद्वड है। पर लोग मुझे निर्घुणशर्मा कहते हैं। मूलदेव ने कहा-व्याकरण में स्वर, व्यञ्जन, वर्ग आदि संज्ञा की तरह लोगों द्वारा प्रदत्त तुम्हारा नाम सान्वय है। तुम्हारी इस क्रिया द्वारा मुझे भी इस अर्थ पर विश्वास हो गया है। इस प्रकार हंसीपूर्वक मूलदेव के स्तुति करने पर वह चला गया। मूलदेव भी चलता हुआ वेण्णातट नगर के पास में एक गाँव में पहुँचा । निर्जन वन में चलते हुए गाँव प्राप्त करने पर उसे ऐसा लगा, मानो समुद्र में द्वीप मिल गया हो। भूख से क्षीण कुक्षिवाला वह राजपुत्र भिक्षा के लिए घूमने लगा । हा ! हा! दुर्दशा देखो! दैव के दुर्योग से हरिश्चन्द्र राजा ने भी चण्डाल के घर पर क्या पहले पानी नहीं भरा ? घूमते हुए बड़े कष्ट से उसे कुल्माष कहीं से भी प्राप्त हुए। उसके द्वारा प्राणवृत्ति धारण करने के लिए वह जलाशय के समीप गया। तभी उसने एक महासत्त्व-संपन्न मुनि को आते हुए देखा । मास-मासखमण तप की तपस्या से शरीर के कृश होने पर भी उनका ओजस कृश नहीं हुआ था। उसने सोचा- यह गाँव तो कंजूसों की जन्मभूमि है। यहाँ पर भिक्षार्थ घूमते हुए मुनि को क्लेश ही प्राप्त होगा । अतः आज मैं गरीब होते हुए भी साधु को कुल्मास दान से पुण्य श्री युक्त हो जाऊँगा । मुझे ऐसा सुपात्र कहाँ मिलेगा ? अतः मुनिराज के निकट जाकर कहाप्रभो! कृपा करके कुल्मास ग्रहण करके मुझे अनुग्रहित कीजिए । मुनिराज ने उस आहार को द्रव्यादि से शुद्ध जानकर रस गृद्धि से विरक्त होकर शुद्धात्मा से पात्र में ग्रहण किया। मूलदेव ने भी अविछिन्न रूप से संपूर्ण कुल्मास आनन्दपूर्वक मुनि के पात्र में उड़ेल दिये। अपने आपको धन्य मानते हुए वह गाने - नाचने लगा कि धन्य हूँ मैं जो मैं साधु को पार में कुल्मास बहराये। उसके इस प्रकार मूहुर्त्त भर तक गाने को सुनकर उसके भावों से रञ्जित होकर वहाँ रहे हुए देवता ने कहा- हे भद्र ! जो भी तुम्हें अभीष्ट हो, वह अर्द्ध श्लोक द्वारा माँग लो। दिव्य आकाशवाणी सुनकर उसने भी मुदित होकर कहा- देवदत्ता वेश्या तथा सहस्र हाथियों से युक्त राज्य मुझे प्राप्त हो । देवता ने भी कहा- हे महाभाग ! जो तुम्हें इप्सित है वह अवश्य प्राप्त होगा । शीघ्र ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संशय नहीं है। तुम्हारे इस पुण्य वृक्ष का तात्कालिक फल तो राज्यादि की प्राप्ति है तथा आगामी फल स्वर्ग आदि के सुख की प्राप्ति के रूप में फलित होगा। यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ महामुनि को प्रणाम करके पुनः घूम-घूमकर जो मिला उससे अट्टम का पारणा किया। फिर वेण्णातट नगर के बाहर पास ही में एक पान्थशाला में जाकर ठहर गया। क्योंकि स्थानमस्थानिनां हि सा । अस्थानियों का स्थान पांथशाला ही है। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने एक स्वप्न देखा कि मुख रूपी समुद्र में पूरा चन्द्र मण्डल प्रवेश कर गया है। धर्मशाला में एक संन्यासी ने भी यही स्वप्र देखा और साथियों को विचार करने के लिए कहा। उन्होंने भी कहा- आज भिक्षा के लिए घूमते हुए तुम्हें गोल चन्द्रमंडल की तरह गुड़ युक्त पूड़ी प्राप्त होगी । यह सुनकर वह हर्ष से फूला न समाया। पर उसने कोटि द्रव्य के समान स्वप्न फल को कोड़ी के समान बना दिया । अतः विचक्षण मूलदेव ने उनको अपना स्वप्न नहीं बताया। नमक की परीक्षा करनेवाला वणिक् क्या रत्न परीक्षा कर सकता है ? 147
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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