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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मूलदेव की कथा उस कार्पटिक ने किसी घर में पूडी व गुड प्राप्त किया। किसी ने ठीक ही कहा हैविचारानुगुणं प्रायः फलं स्वप्नः प्रयच्छति । विचारों के अनुरूप ही प्रायः स्वप्रफल होता है। मूलदेव विश्रान्तिदायक उद्यान में जाकर पुष्प-चुनना आदि सहायता के द्वारा उस उद्यान के मालिक को खुश किया। फिर उससे कतिपय पुष्प फल आदि प्राप्तकर शुद्ध होकर मंदिर की तरह स्वप्न फल दृष्टा के घर गया। उसे प्रणाम करके उसके हाथों में सुपुष्प-फल आदि रखकर अपना स्वप्न सुनाया तथा विनयपूर्वक उसका फल पूछा। उसके द्वारा महास्वप्न कहे जाने पर स्वप्नवेदी भी विस्मित हुआ। उसने कहा-वत्स! अच्छा लग्न काल आने पर विद्या की तरह स्वप्न फल कहूँगा। इस प्रकार कहकर स्नान करवाकर नये वस्त्रों को धारण करवाकर चिरकाल से आये हुए प्रिय अतिथि की तरह आदरपूर्वक उसे खाना खिलाया। अपनी कन्या उसे देने के लिए समीप लेकर आया, मानो सौत की तरह राज्य संपदा को भी चाह रहा हो। मूलदेव ने कहा-तात! यह सब क्या है? मुझे बताइये जिससे कि आप मेरे कुल आदि को जाने बिना ही कन्यादान के लिए उद्यत हो गये हैं। उसने कहा-महाभाग! शील, विनय आदि गुणों तथा इनकी सहचरी क्रियाओं ने तुम्हारा कुल बता दिया है। इस प्रकार उसे समझाकर शीघ्र ही अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दिया। कहा भी गया है बलादप्युपसर्पन्ति पुंसः पुण्योदये श्रियः । पुरुष का पुण्योदय होने पर ऋद्धि सिद्धि जबरन पास में चली आती हैं। फिर उसने दिव्य ज्ञानी की तरह स्वप्नफल कहा-सात दिन के अन्दर-अन्दर तुम्हें यहाँ पर ही राज्य की प्राप्ति होगी। देवता वाक्य की सत्यता बतानेवाला स्वप्नार्थ जानकर वह प्रसन्न हुआ। खोये हुए राज्य मार्ग को खोजने की तरह वह वहीं रहा। पाँचवें दिन पुण्य के द्वारा पुकारा जाता हुआ वह बाहर वन में गया। मार्गश्रम से थके हुए पथिक की तरह वह चम्पक वृक्ष के नीचे सो गया। उसी समय वहाँ का निष्पुत्र राजा मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। भाई रहित बहन की तरह राज्यश्री निरालम्ब हो गयी। मन्त्रियों द्वारा राज्य के योग्य पुरुष को पाने के लिए हाथी, घोड़ा छत्र, चामर तथा स्वर्णकलश-इन पाँच देवाधिष्टित मंगलो को फिराना शुरु किया। वे पूरी नगरी में संचरण करने लगे। एक विदेशी मनुष्प को श्री युक्त देखा। राज्य के योग्य उस प्रकार के उस मनुष्य को जानकर वे पाँचों मंगल नगर से बाहर निकलते हए मलदेव के पास आये। गजराज उसे देखकर आषाढ के मेघ की तरह गरजा। मानो लोगों को कह रहा हो कि यह पुरुष राज्य के योग्य है। घोड़े ने भी हिनहिनाते हुए मानो अपनी सहमति प्रकट की हो-गजराज! तुमने बहुत अच्छा राजपात्र निवेदन किया। ___ छत्र की बाँधी हुई डोरियाँ अपने आप टूट गयी तथा छत्र विस्तार युक्त होकर राजश्री के मूलचिह्न की तरह उसके सिर पर जाकर स्थित हो गया। पुरोहित की तरह स्वर्ण कलश उस पर अर्ध्य चढ़ाने लगा। पंख की तरह चामर अपने आप डोलने लगे। मूलदेव जागृत हुआ तथा वह सब देखकर खुश हो गया। गजराज ने उसे अपनी सूंढ से उठाकर अपने कन्धे पर बिठा लिया। स्वामी को प्राप्तकर प्रसन्न होते हुए लोगों ने जय-जयकार की ध्वनि की। राजा के मंगल के लिए नान्दीतूर्य बजाया जाने लगा। नये राजा ने महा-उत्साहपूर्वक पत्तन में प्रवेश किया। जैसे राम ने लंकाधिपति को जीतकर अयोध्या में प्रवेश किया था। मेहमान की तरह उसे ले जाकर अनेक मंगल किये गये। जैसे सिंह गुफा में प्रवेश करता है वैसे ही उसने महल में प्रवेश किया। विपुल लक्ष्मी से युक्त चक्रवर्ती की तरह सिंहासन पर आरुद 148
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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