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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मूलदेव की कथा दिया है। इस प्रकार के अपराध के कारण तुम्हारा सर्वस्व हरण करके तुम्हारा वध करना ही दण्ड होगा। राजा के इस प्रकार कहने पर देवदत्ता ने उसे प्राणदान दिलवाया। उसने विचार किया कि इसने भी मूलदेव को जीवन्मुक्त किया था। राजा ने अचल से कहा-तुम्हें आज देवदत्ता के कारण जीवनदान मिला है। लेकिन उस नर-शिरोमणि मूलदेव को लेकर आओ, तो ही इस नगर में प्रवेश करना। वरना इस देश की भूमि पर पाँव मत रखना। युगान्तकारी पवन की तरह राजा के आदेश से अचल भी तत्क्षण चलित हो गया। क्योंकि राज्ञामाज्ञाऽति भैरवा । राजाओं की आज्ञा अति भयंकर होती है। अचल ने मूलदेव को सर्वत्र खोजा। पर वह संपदा की तरह निष्पुण्य शाली अचल को कहीं प्राप्त नहीं हुआ। तब अपने सर्वस्व तथा परिवार जनों के साथ वह बाहर ही रह गया। नदी के दूसरे तट से आनेवाले मछुआरों से वह भयभीत होकर सदा मूलदेव के बारे में पूछा करता। देवदत्ता को भी राजा ने उपालम्भ दिया कि तुमने मूलदेव के बारे में हमे पहले क्यों नहीं कहा? अगर तुमने पहले हमें बता दिया होता तो हम मूलदेव को देशादि देकर हमारे पास में ही हम उसे रखते। क्योंकि कः कराद्रत्नमुज्झति । हाथ से रत्न को कौन छोड़ता है? देवदत्ता ने कहा-इसी अपाय की आशंका से मैंने आपको नहीं बताया था। हे देव! तब मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी। फिर देवदत्ता ने राजा को प्रणाम करके उनके पास वर माँगा-देव! अब आगे आप के द्वारा मैं किसी को भी न दी जाऊँ। महाराज ने भी उसको उसका इच्छित वरदान प्रदान किया। क्योंकि जायन्ते नाऽन्यथा वाचः कल्पान्तेऽपि यतः सताम् । सज्जनों का वचन कल्पान्त काल में भी अन्यथा नहीं होता। चतुर्थ व्रत को स्वीकृत करने की तरह मूलदेव के सिवाय अन्य किसी भी पुरुष का उसने निषेध कर दिया। इधर मूलदेव भी ग्राम से ग्रामान्तर चलते हुए क्रमशः तीन दिन जितने समय में पार करने वाली महा अटवी का मुख प्राप्त किया। वह किसी सार्थ को खोजने लगा। उसके पास खाने के लिए पाथेय भी नहीं था। तभी उसने एक मूर्ख ब्राह्मण को आते हुए देखा। उसके हाथ में सत्तु की छोटी सी थैली देखकर उसने सोचा-इसके तथा इसके पाथेय के सम्बल से मैं भी इस अटवी को पार कर लूँगा। अतः उसके पास जाकर कहा-भद्र! बहुत ही अच्छा हुआ। इस मार्ग को पार करने के लिए मुझ अकेले को आपने दो कर दिया। अब हमें श्रम की थकान ज्ञात नहीं होगी। परस्पर बातें करते हुए मार्ग आसानी से पार हो जायगा। द्विज ने कहा-हे महाभाग! तुम कहाँ जाना चाहते हो? मूलदेव ने कहा-मैं वेण्णातट पुर जाऊँगा। उसने भी कहा-मैं विरनिधानक गाँव में जाऊँगा। अतः हे भद्र! इस पूरे जंगल तक हम दोनों का साथ रहेगा। तब उन दोनों ने मार्ग पर चलना शुरु कर दिया। मानो सिद्धान्त में उत्सर्ग व अपवाद मार्ग की संगत हो। सिर पर छतरी होने पर भी सूर्य के ताप से पीड़ित होकर दोनों एक सरोवर देखकर विश्राम के लिए रूक गये। मूलदेव ने वहाँ स्नानकर उस सरोवर का पानी पीकर सरोवर के किनारे वृक्षों की छाया में विश्राम किया। उस निर्लज्ज ब्राह्मण ने सरोवर देखकर सत्तू निकालकर स्वार्थी की तरह अकेले ही खाना शुरु कर दिया। मूलदेव ने सोचा-यह क्षुधा से पीड़ित होने के कारण पहले स्वयं खा रहा है, बाद में मुझे देगा। खाने के बाद थैली का मुँह बाँधते देखकर मूलदेव ने पुनः विचार किया कि यह अभी नहीं तो आगे जाकर मुझे देगा। तब उस ब्राह्मण ने उससे कहा-चलो। अब आगे जाया जाय। वह भी आशा रूपी लाठी के सहारे क्षुधित होने पर भी पथ पर चलने लगा। दूसरे दिन भी उसे दिये बिना ही सत्तू खाने पर वह सोचने लगा-खत्म हो जायगा-इस भय से 146
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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