SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमरचंद्र की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् महाविदेह नामका क्षेत्र है, जहाँ सदेव चौथा आरा ललित कला करता हुआ मनुष्यों द्वारा देखा जाता है । वहाँ पर सात कला से भी अधिक कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान पूर्व विदेह में पुष्कलावती नामकी अत्यधिक विशाल विजय है। वहाँ अन्न-पान, प्रचुरता एवं काव्यरसीकजनों की विशालता, तथा व्रज्रादि रत्नों की अधिकता द्वारा रत्नाकर को भी तिरस्कृत करने वाला रत्नाकर नामका नगर है। वहाँ पर नाम व रूप दोनों से ही सुन्दर सुरसुन्दर नामका राजा राज्य करता था। वह लोगों द्वारा देवदेव कहा जाता था । उनको उद्देश्य करके सामान्य राजा होते हुए भी लोक उसे देवदेव नाम से निश्चित कथन करने लगे। उस राजा की रानी मानो विलास की जननी होने से विलासवती कहलाती थी । अन्तःपुर में उसका निवास होने पर भी वह सदैव राजा के चित्त में वसती थी। एक बार महादेवी ने चन्द्र का स्वप्न देखा, जिसके फलस्वरूप अमरचन्द्र नामका अतिपुण्यशाली पुत्र पैदा हुआ। क्रम से अध्ययन करते हुए उसने कला समुद्र का पार पा लिया । यौवन अवस्था को प्राप्तकर वह श्रीनन्दन के अपर रूप की भाँति शोभित होने लगा। अपने मित्र सचिव पुत्र कुरुचन्द्र के साथ एक शरीर एक आत्मा की तरह घुमता हुआ क्रीड़ा रत रहता था। उसके कामदेव जैसे रूप को देखकर अपनी-अपनी कन्याओं का चित्रपट भेजकर कुमार के साथ बहुत सारी कन्याएँ परणायी गयी। राजा के द्वारा प्रदत्त महल में वह राजपुत्र हथिनी के साथ हाथी की तरह उनके साथ क्रीड़ा करता था । एक बार कुमार अपने आवासगृह में सोया हुआ था। रात्रि में उसने इस प्रकार की आर्त्त ध्वनि सुनी - हा ! दौड़ो ! दौड़ो! हे नाथ! शरण रूप ! शरण दो । गृद्ध के द्वारा भोजन (मांसाहार) झपटने के समान यह मुझे हरण करके ले जा रहा है। विक्रम कुमार के समान कुमार ने विचार किया कि किसी के भी द्वारा हरण करके ले जाती हुई स्त्री की यह आतुर ध्वनि है। मैं क्षत्रिय प्रमुख क्षमापति का पुत्र हूँ । आर्त्त नाद करती हुई इस स्त्री की रक्षा की उपेक्षा करना उचित नहीं है। रक्षा करना ही हमारा क्षात्र धर्म है। एक साथ वीर तथा करुणा रस से युक्त होकर महा जस्वी तथा कृपालु बनकर वह राजपुत्र उठ खड़ा हुआ। मजबूत गांठ द्वारा केशपाश को संयमित करके तत्क्षण वीर ग्रंथि के द्वारा वस्त्रों को बाँधकर वह वीर कुंजर की भाँति हाथ में तलवार को घुमाते हुए अपने वास गृह से बाहर निकला। जैसे- पूंछ हिलाता हुआ सिंह पर्वत की गुफा से निकलता है । उस धन्वी रूपी दूसरे अर्जुन को देखकर वह स्त्री चिल्लायी - हे ! हे ! मुझे बचाओ। दुःखी की रक्षा करने से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है । विद्याधर ने कहा- हे सुन्दर मुखी ! मेरे पुण्य से ही तेरा इच्छित पति मर गया है। अतः इस निर्जन वन में किसके आगे पुकार करती हो ? नीचे कुमार को देखकर हंसता हुआ वह कन्या से बोला- हे मृगाक्षी ! क्या तुम भूचर के द्वारा मुझसे रक्षित की जाओगी? उसने कुमार को कहा-अरे! अभी तक तो तुम्हारे दूध के दांत भी टूटे नहीं है। तुम्हारे हाथ में तलवार नहीं, सेवा खण्डक ही शोभित होता है। हे बालक ! युद्ध में लड्डु पूडी नहीं मिलते। तुम उत्कण्ठित क्यों होते हो? यहाँ तो केवल प्रहार ही मिलते हैं। और यह स्त्री न तो तुम्हारी माँ है, न पत्नी है और न ही बहन है । फिर इस स्त्री के लिए क्यों व्यर्थ ही विपत्ति में पड़ते हो? हे शिशु ! अकाल में माता की आशा लता का छेदन क्यों करते हो? मुझे बालहत्या के पाप में क्यों संलग्न कर रहे हो ? कुमार ने कहा- हे मूढ़ ! यह परस्त्री कहाँ से हरण की है ? विद्याधर के दर्प से वृथा ही तुम लक्ष्य भ्रष्ट हो रहे हो । परदारा का अपहरण करने पर खेचर होते हुए भी रावण क्या भूचर राम के द्वारा यम का अतिथि नहीं बना? खेचरत्व को ढाल बनाकर दुर्वाक्य रूपी हेतुओं के समूह से प्रहार करते हुए तुम अपने दौर्जन्य को क्यों प्रकट कर रहे हो? अगर वीर हो, तो सामने आओ। दुर्वाक्य से अर्जित तुम्हारी पापात्मा को अपनी तलवार की धारा रूपी तीर्थ शुद्धि करता हूँ। भले ही यह मृगाक्षी मेरी अपनी नहीं है, लेकिन क्षत्रिय राजा को जगत् के सभी प्राणियों की अपने कुटुम्ब के समान ही रक्षा करनी चाहिए । 131
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy