SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् अमरचंद्र की कथा करने के लिए विद्याधरों का रूप धारण किया। फिर उस कन्या का हरण करके उद्यान में सागरचन्द्र का उसके साथ विवाह करके अपना कार्य सिद्ध होने की खुशी में सभी ने क्रीड़ा करनी शुरु कर दी। कमलामेला को घर पर नहीं देखा, तो उसके परिजन व्याकुल हो गये। गवेषणा करते हुए किसी ने उद्यान में कुछ देखा। विद्याधरों के रूप में शाम्ब आदि कुमारों को देखकर उसने विचार किया कि कमलामेला विद्याधरों द्वारा हरण कर ली गयी है। तब धनसेन-उग्रसेन आदि सभी जनों से युक्त होकर उनके साथ युद्ध करने लगे। पर कुछ क्षणों में ही वे शाम्ब आदि कुमारों द्वारा जीत लिये गये। यह सब वृतान्त जानकर स्वयं कृष्ण सेना के साथ निकले उन्होंने कहा कि-जिसने इस कन्या का हरण किया है, उसका मैं हनन करूँगा। तब शाम्ब ने अपना मूल रूप प्रकाशित करते हुए उनके पाँवों में गिरकर उसके विवाह आदि की सारी कथा श्रीकृष्ण को बतायी। तब श्रीकृष्ण ने स्वयं सागरचन्द्र को वह कन्या देकर धनसेन उग्रसेन आदि का हाथ पकड़कर उन्हें समझाया। क्षमा कर देने पर भी नभःसेन का क्रोध शान्त नहीं हुआ। को वा कोपातुरो न स्यात्प्रियापरिभवे सति । अपनी प्रिया का परिभव होने पर कौन कोपातुर नहीं होगा? पर वह सागरचन्द्र का कुछ भी अप्रिय करने में समर्थ नहीं था। उसके छिद्रों को, बुराइयों को देखता हुआ वह कष्टपूर्वक अपने घर गया। कालान्तर में १८ हजार साधुओं से परिवृत भगवान तीर्थकर श्रीनेमिनाथ प्रभु वहाँ पधारें। तब सागरचन्द्र ने भी वहाँ जाकर हर्षित भाव से, स्वामी को प्रणाम करके उनके श्रीमुख से धर्मदेशना सुनी। सम्यक्त्वमूल श्रावक के बारह व्रत तो उसने पहले ही ग्रहण कर लिये थे। प्रभु की देशना से वह धर्म-कर्म में और भी ज्यादा उद्यत हुआ। एक दिन चतुर्दशी की रात्रि में बाहर श्मशान के पास सामायिक व्रत करके कायोत्सर्ग में स्थित हुआ। दैववश से नभःसेन ने उसको वहाँ देखकर सोचा-इसकी आज हत्या करके बहुत काल से चिन्तित अपने वैर को सिद्ध करूँगा। तब सागरचन्द्र के सिर पर मिट्टी की पाघड़ी बनाकर उसमें जलती हुई चिता से अंगारे लाकर उस पापी ने खुद रखे। सागरचन्द्र को जीवन का अंत करनेवाली वेदना उत्पन्न हुई। फिर भी चलित न होते हुए उसने उत्तम ध्यान ध्याना शुरु कर दिया। हे जीव! तू खेद मत कर। दीनता को दूर से ही त्याग दे। पूर्व में आरोपित पाप वृक्ष के ही ये फल हैं। आत्मा स्वयं ही कर्म करती है और स्वयं ही उसके विपाक को प्राप्त होती है। तो फिर विवेकियों द्वारा उसके निमित्त पर क्रोध करना कहाँ तक उचित है? हे जीव! तुने पूर्व में इसका जो कुछ बुरा किया था, वही पलटकर व्याजसहित तू प्राप्तकर रहा है। अतः इस समय यह ऋण चुकाने वाले की तरह तुम्हारा उपकारी है। अतः द्वेष करना उचित नहीं है। तूं परितोष को प्राप्त हो। इस प्रकार सामायिक व्रत में एकाग्रचित्त होकर सद्भावनाओं द्वारा कर्मजाल का तिरस्कार करते हुए सागरचन्द्र नामका सुश्रावक कर्मों का नाश करके देवलोक को प्राप्त हुआ। अतः बुद्धिमान प्राणी सागरचन्द्र की तरह उपसर्ग आने पर भी सामायिक व्रत की विराधना न करें, जिससे सम्यग्-गृहस्थ भी विशुद्ध मनवाला होकर स्वर्ग तथा अपवर्ग को प्राप्त करता है। इस प्रकार सामायिक व्रत में सागरचन्द्र की कथा सम्पन्न हुई। अब देशावकाशिक व्रत पर अमरचंद्र की कथा का अवसर है __|| अमरचंद्र की कथा || यहाँ पुष्करवरद्वीप नामक तीसरे द्वीप में अर्द्ध मनुष्य क्षेत्र की मर्यादा करनेवाला मानुषोत्तर पर्वत है। वहाँ 130
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy