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________________ सागरचंद्र की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् कहा भी गया है कर्णविषं येन महाविषम् । कान में जहर घोलना ही सबसे महान विष है। उसने नयनों में आँसू भरकर कहा-भगवान! मैं अभागिनी हूँ। मेरा जीवन विफल है। मेरे वैरी पिता ने कहाँ नभःसेन को दे दी है। लेकिन वह मुझे पसन्द नहीं है। अतः मेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है। मैं गुणों के सागर सागरचन्द्र में अनुरक्त हूँ जो कि युक्त नहीं है। अभागी को वाञ्छित प्राप्त भी कैसे हो सकता है। मूद मन वाला आर्तध्यानपूर्वक दुर्लभ वस्तु की आकांक्षा करता है। आकाश को चन्द्रमा देने के लिए हाथ पसारकर याचना करता है। नारद ने कहा-हे पुत्री! धैर्य धारण करो। दुःख मत करो। सागरचन्द्र भी तुममें गाद रूप से आसक्त है। उससे मेरा योग कैसे होगा-यह चिन्ता भी तुम मत करो। दैव की अनुकूलता से असंभव भी संभव हो जाता है। इस प्रकार कमलामेला को संबोधित करके नारदजी सागरचन्द्र के पास आये और कहा कि वह भी तुम पर अनुरक्त है। यह सुनकर सागरचन्द्र कमलामेला में और भी ज्यादा अनुरागवाला हो गया। "वह भी तुमपर अनुरक्त है" बस, यही एक वाक्य बार-बार उसकी बुद्धि में चक्कर काटने लगा। वह मन में उसी का ध्यान करता था, वचन से उसी की बातें करता था। चित्रों में उसी को लिखता था। दृष्टि से उसे ही देखता था। अगर मैं खेचर की तरह पंखवाला होता, तो उड़कर उसके चंचल मुख का दर्शन कर लेता। इस प्रकार वह विविध विचारों को मन में धारण करता था। उसके मुख से निकलती हुई लंबी-लंबी गरम-गरम सांसों से उसके मित्र व पार्श्ववर्ती जनों का मुख श्याम हो जाता था। कोई उस ताप को दूर करने के लिए पानी छिडकता था, तो वह पानी अंगारो पर फेंकने के समान सूख जाता था। जलयुक्त पंखे द्वारा चन्दन के लेप से, चन्द्रमा की चाँदनी से व्रकदली दल की हवा से भी उसकी विरहरूपी अनल से उत्पन्न देह-दाह शान्त नहीं हुई। वह गीतादि में रक्त नहीं होता था। क्रीड़ाओं में प्रवृत्त नहीं होता था। अंगों का श्रृंगार भी नहीं करता था। आहार की वांछा भी उसे नहीं थी। मूर्छा से बन्द आँखों की तरह वह बार-बार भूमि पर गिर जाता था। फिर उन-उन शीत उपचारों द्वारा कुछ चेतना को प्राप्त करता था। कभी-कभी वह असंबद्ध प्रलाप करने लगता-हे प्रिये! प्रसन्न हो! दर्शन दे। मुझ पर क्यों क्रोधित होती हो? मुझे क्षमा करके मेरे पास आओ। वह कुछ भी हितोचित क्रियाएँ नहीं करता था, किंतु सर्वथा अपहरण किये हुए चित्त की तरह शून्य हो गया था। उसकी उस प्रकार की दशा देखकर उसके मित्र आदि ने विचार किया की इस प्रकार की दशा में इसने मदन की नवमी दशा को प्राप्त कर लिया है। अगर इसने दसवीं दशा को प्राप्तकर लिया, तो फिर यह मर जायगा। इस प्रकार चिन्ताभार से आक्रान्त होकर सभी का मन अधीर हो उठा। इसी बीच शांब ने वहाँ आकर सागरचन्द्र की आंखों को पीठ पीछे से हाथों से बंद कर दी। सागरचन्द्र ने कहा-हे कमलामेले! मेरी चकोर आंखों को छोड़ो! आज तुम्हारे मुखचन्द्र के दर्शन से मुझे तृप्ति मिलेगी। सागर के इस प्रकार कहने पर शाम्ब ने उससे कहा-मैं कमलामेला नहीं हूँ पर तुमसे कमलामेला का मेल कराने वाला मेलक हूँ। तब सागर ने कहा-चाचा! आप अविलम्ब मुझसे कमलामेला का मिलन कराये, मैं आपका आजन्म ऋणी रहूँगा। आपने स्वयं अपने वचन से यह स्वीकार किया है। अतः कुछ ऐसा कीजिए कि जिससे उस रेखा को यहाँ प्राप्त कर सकेंगे। शाम्ब ने विचार किया कि निश्चय ही हंसी-हंसी में मैंने जल्दबाजी से दुष्कर कार्य करना स्वीकार कर लिया है। पर उसके निर्वाह करने में मैं शंकित हूँ। लेकिन अब शंका करने से क्या फायदा? अब दुष्कर हो या सुकर-मुझे प्रतिज्ञा का निर्वाह तो करना ही है। ऐसा विचार करके शाम्बने गुप्त मनुष्यों द्वारा उद्यान से कमला मेला के घर तक एक गुप्त सुरंग बनवायी। चूँकि नारद ने कहा था कि वह भी तुममें अनुरक्त है। फिर शाम्ब ने प्रद्युम्न के पास से प्रज्ञप्ति विद्या ग्रहण की। शाम्ब आदि सभी ने नभःसेन के विवाह के लिए लायी हुई कन्या का सुरंग से हरण __129
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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