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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् समृद्धिदत्त एवं श्रीपति की कथा अपना मुख ऊपर करके वह चला गया। जाते हुए उसने विचार किया कि लक्ष्मी ने मेरा त्याग कर दिया है, अतः मैं व्यवसाय तो नहीं करूँगा। कहा भी है रक्ते रङ्गो हि युज्यते । अनुराग में ही राग युक्त होता है। लाल रंग में लाल रंग ही युक्त होता है। अतः किसी पर्वत आदि से गिरकर दुःख मुक्त हो जाऊँगा। इस प्रकार विचार करते हुए उसने आगे प्रतिमा की तरह स्थित मुनि को वन में देखा। उसने मुनि को वन्दन किया। मुनि ने भी ध्यान पारकर उसको कहा-हे भद्र! क्या आत्म-घात द्वारा दुःखों से मुक्ति चाहते हो? इससे तुम दुःख मुक्त नहीं बन पाओगे, बल्कि निर्मल तप द्वारा ही तुम दुःख मुक्त बनोगे। अतः तुम शुभ आशय से प्रव्रजित होकर तपस्या करो। तब श्रीपति ने उन मुनि के पास व्रत अंगीकार कर लिया। राग छोड़ देने के बावजूद भी कौतुक के कारण थाल के उस टूकड़े को उसने नहीं छोड़ा। फिर श्रुत पढ़कर उसका अर्थ श्रवण करके संपूर्ण साधु समाचारी को उस बुद्धि के धनी ने जान लिया। गीतार्थ होकर विचरण करते हुए एकाकी चर्या द्वारा वे मुनि उत्तर मथुरा नाम की नगरी में गये। भिक्षा का काल होने पर भिक्षा के लिए घूमते हुए महाइभ्य समृद्धिदत्त श्रेष्ठि के घर के आँगन में पधारें। वहाँ उन्होंने स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित उनउन स्नान उपकरणों को अपनी ही तरह उस श्रेष्ठिवर्य की स्नान सामग्री देखी। पुष्कल उदात्त श्रृंगार से युक्त नवयौवना उसकी पुत्री को बहुत सी दासियों द्वारा पंखा झूलते हुए देखा। सुवर्ण रत्नमय खण्डित थाल तथा कटोरों में उस सेठ को भोजन करते हुए देखा। भिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी अपनी संपूर्ण वस्तुओं को कौतुक से चोड़ी आँखों द्वारा वहाँ खड़े देखते रह गये। वह श्रेष्ठि भी उन मुनि को उस अवस्था में देखकर बोले-हे मुनि! क्या इस बाला को देख रहे हैं? क्या अन्नपान आदि चाहिए या और कुछ चाहिए। अथवा आपका प्रयोजन बताइये। मुनि ने कहा-मैं अनुरागपूर्वक इस कन्या को नहीं देख रहा हूँ। मैंने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया है। स्त्री मेरे लिए तृणवत् है। माधुकरी वृत्ति होने से मुझे अन्न आदि की स्पृहा भी नहीं है और निःसंग को कोई और प्रयोजन भी नहीं होता। पर इन वस्तुओं के समूह से मुझे अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है कि ये कहाँ से प्राप्त की-यही पूछने के लिए मैं रूका हुआ हूँ। श्रेष्ठि ने कहा-यह सारी संपत्ति क्रमपूर्वक आयी हुई है। यति ने पूछा-तो खण्डित थाल में क्यों भोजन करते हो? श्रेष्ठि ने कहा-हे मुनि! इस खण्डित थाल पर कई स्वर्णकारों ने स्वर्णखण्ड जोड़ने की बहुत बार कोशिश की, पर यह जुड़ता ही नहीं है। तब मुनि ने अपनी कमर से उस थाल के टूकड़े को निकालकर छोड़ा। छोड़ते ही वह टूकड़ा द्रुत गति से जाकर स्वतः ही खण्डित थाल में लग गया। तब उस समृद्धि की वैसी याथात्म्यता को जानकर निरीहात्मा मुनि वहाँ से निकल गये। श्रेष्ठि ने भी उस टूकड़े को थाल से लगा हुआ जानकर चमत्कृत होते हुए जाते हुए मुनि को आदरपूर्वक कहारूको! रूको! अपने स्थान से उठकर उनके पास जाकर शीघ्र ही भक्तियुक्त वन्दन किया। और संभ्रमित होते हुए उस स्थाल-खण्ड की घटना पूछी। मुनि ने कहा-हे भद्र! यह संपूर्ण विभूति तुम्हारे पास कैसे आयी-यह सब मैं जानता हूँ। तब श्रेष्ठि ने लज्जित होते हुए कहा-मैंने आपसे झूठ कहा था। मुझे क्षमा करें। यह श्री मुझे कुछ दिन (वर्ष) पहले ही प्राप्त हुई है। आज से आठ वर्ष पहले एक बार मैं जब नहाने जा रहा था, तो ये सारे स्नान उपकरण आकाश मार्ग से मेरे पास आ गये। ज्यादा क्या कहूँ? यह संपूर्ण अद्भूत विभूति देव की कृपा से कहीं से भी मेरे घर में आ गयी है। हे मुनि! अब आप बतायें कि आप कहाँ से पधारे हैं? आपका नाम क्या है? आप किसके पुत्र है तथा यह स्थाल-खण्ड आपने कहाँ प्राप्त किया? मुनि ने भी घर से लगाकर वहाँ तक आने तक का अपना सारा वृतान्त यथातथ्य रूप से बता दिया। वह 126
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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