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________________ समृद्धिदत्त एवं श्रीपति की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् मृत्युकाल नजदीक जानकर अपना संपूर्ण गृह-सार पुत्र को बताकर धर्म में व्यय आदि कृत्य करके वह देवलोक में चला गया। तब उसकी दैहिक क्रिया आदि करके उसके मृत्यु शोक से निवृत होने के पश्चात् स्वजनों तथा नागरिकों ने उसके पद पर उसके पुत्र को बैठाया। कुछ दिन व्यतीत होने के बाद उसके लाभान्तराय कर्म के उदय से सूखे हुए एरण्डफल के समान समुद्र में पोत डूब गया। दूरस्थ देशों से स्थलमार्ग से आनेवाला क्रय का माल बिना स्वामी के माल के समान चोरों द्वारा संपूर्ण रूप से लूट लिया गया। पहले से नियुक्त अपने ही गोत्रीय वणिक् पुत्रों के द्वारा वित्त विभाजित कर लिया गया। कहा भी है विपाकः कर्मणां हहा । हाय! कर्मों का विपाक! कोष्ठागार आदि में रहा हुआ माल तथा धन जलकर राख हो गया। तब मित्र व स्वजनवर्ग भी दूर हो गये। एक बार उसने स्वर्ण तथा रजतमय पीठ पर बैठकर पहले की भाँति स्नान करने के लिए, तेल की मालिश उबटन आदि करवाया। फिर उच्च जाति के चंदन तथा काश्मीर के हिरणों की नाभि से प्राप्त कस्तूरी से मिश्रित पानी द्वारा भरी हुई स्वर्णकुंडी से देह सुख के लिए हिरण्यमय कलश से पानी ले-लेकर उन स्नान कला में कुशल नरों द्वारा नहलाया जा रहा था। उनके द्वारा कलश हाथ से छोड़ते ही वह पक्षी की तरह उड़ गया। इसी प्रकार स्नान करके उठने पर वह पीठ तथा वह कुण्डिका भी उड़ गयी। देवों को नमस्कार करने के लिए मूल कक्ष में गया, तो वह भी चारों ओर से गरीब के घर की तरह खाली हो गया। स्वर्णरत्नमय थाल व कटोरों में तरह-तरह के दिव्य मन को प्रिय लगने वाले आहार का भोग करते हुए जो-जो भी कटोरे आदि खाली हुए वे भी विरक्त द्वारा सर्वस्व का त्याग करने के समान उड़कर चले गये। खाना खाने के बाद जब थाल भी उड़कर जाने लगा तो उस वणीक् पुत्र ने हाथ से उसके किनारे को पकड़कर कहा-मत जाओ! मत जाओ! लेकिन वह टुकडा टूटकर मात्र उसके हाथ में रह गया, थाल उड़कर चला गया। कहा भी गया है गच्छन् किं कोऽपि केनापि शक्यते धर्तुमुन्मनाः? क्या जाता हुआ कोई भी किसी खिन्नमन वाले द्वारा पकड़ा जा सकता है? तब उस श्रेष्ठिपुत्र ने विचार किया कि यह तो सब कुछ चला गया। अतः देखता हूँ कि निधि जो खान आदि में रखी हुई है, वह है या चली गयी है। प्रत्येक खान को उसने देखा, तो कहीं अंगारे दिखायी दिये। कहीं बिच्छु आदि दिखायी दिये। तब अपने आप को निर्भागी मानते हुए उसने विचार किया कि मैं कैसा इस भाग्यशाली कुल में उत्पन्न हुआ हूँ! कोई तो पैदा होते हुए संपूर्ण भूतल को प्रसन्न कर देता है। कोई पूर्णिमा के चन्द्र के समान अपने कुल रूपी सागर की पूर्ण वृद्धि करता है। पर मुझ जैसे वंश के फल द्वारा ही अपने वंश का नाश कर दिया गया। मेरी संपूर्ण श्री तात के जाने के बाद उनके पीछे ही चली गयी। वह इस प्रकार विचार कर ही रहा था, कि तभी किसी ने आकर उससे कहा-तुम्हारे पिता ने मुझसे दस हजार स्वर्ण मोहरें ली थी, वह मुझे अभी लौटाओ। श्रीपति ने उसके वचनों को सुनकर विचार किया कि मेरे पिता द्वारा तो सभी से लेना निकलता है। किसी को देना तो कुछ भी नहीं था। पर यह मेरे दूष्कर्मों का फल ही प्रकट हो रहा है। इस प्रकार जानकर अच्छी तरह विचार करके कहा-हे भद्र! अभी कोश का अधिकारी यहाँ नही है। अतः आप कल आना। सारी बही आदि देखकर उनके अनुसार आपको दे दूंगा। उसके बाद वह अपनी मां को जाकर बोला-हे माते! मैं देशान्तर को जाता हूँ क्योंकि यहाँ लोग मुझे चैन से नहीं जीने देंगे। तुम यहीं रहो। तुम स्त्री हो अतः तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। इस प्रकार अपनी माता को समझाकर 125
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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