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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् समृद्धिदत्त एवं श्रीपति की कथा पारणे में निरवद्य भोजन लाकर खिलाता। इस प्रकार तप करते हुए शिव अपनी पत्नियों आदि द्वारा भोगोपभोग के लिए गाद रूप से प्रार्थना किये जाने पर भी विचलित नहीं हुआ। गुरु की सन्निधि में नहीं जाकर पिता के पास ही रहकर शिव ने बारह वर्ष तक अपने धर्म का सम्यग् निर्वाह किया। फिर ब्रह्मचारी गृहस्थ होते हुए भी आराधना करके ब्रह्मलोक नामके कल्प में विद्युन्माली देव हुआ। फिर वहाँ से च्युत होकर राजगृह नगरी में सुधर्मास्वामि के शिष्य जम्बूस्वामी के रूप में पैदा होकर अद्भूत कैवल्य संपदा को प्राप्तकर अनन्त सुख रूप अपवर्ग को प्राप्त किया। इस प्रकार भोगोपभोग व्रत में शिवकुमार की कथा पूर्ण हुई। अब अनर्थदण्ड विरति व्रत पर समृद्धिदत्त एवं श्रीपति की कथा को कहते हैं || समृद्धिदत्त एवं श्रीपति की कथा || पवित्र नाम से युक्त दक्षिण मथुरा नाम की नगरी थी। दिशायोग से दक्षिण होने से उसका नाम दक्षिण मथुरा वहाँ के निवासियों द्वारा रखा गया। उस दक्षिण मथुरा में श्री रूपी लता से मण्डित अशोकदत्त नाम का श्रेष्ठि था। उत्तर में कुबेर भी उस वणिक पुत्र समृद्धिदत्त के समान आभा को धारण करता था। एक बार उत्तर-मथुरा वासी समृद्धिदत्त नामक श्रेष्ठि अपनी समृद्धि की वृद्धि के लिए दक्षिण मथुरा में आया और उसके साथ उसकी अत्यधिक मित्रता हुई। दोनों दो शरीर एक प्राण की तरह हो गये। सर्वत्र कार्यों की प्रवृति व निवृति एक साथ एक ही काय योग की तरह निर्दिष्ट थी। दोनों की मैत्री को स्थिर करने के लिए दोनों ने यह तय किया कि एक के पुत्र से दूसरे की पुत्री का विवाह कर देंगे। श्रेष्ठि समृद्धिदत्त ने वहाँ अद्भुत धनोपार्जन किया। फिर अपने मित्र को पूछकर अपने स्थान पर चला गया। परस्पर मैत्री की पवित्रता बरकरार रखने के लिए दोनों जन पत्र लिख-लिखकर अपने संदेश वाहको को भेजा करते थे। दक्षिण मथुरावासी अशोकदत्त नामक श्रेष्ठि के यहाँ संपूर्ण लक्षणों से युक्त पुत्र उत्पन्न हुआ। अशोकदत्त ने पुत्र जन्म का महोत्सव किया और रङ्क से राजा तक को आनन्दसंपदा प्रदान की। यह प्रचुर लक्ष्मी रूपी श्री के पति अर्थात् मालिक रूप से उत्पन्न हुआ है-इस प्रकार सभी जनों द्वारा कहे जाने पर श्रेष्ठि ने अपने पुत्र का नाम श्रीपति रखा। अपने स्नेह-सर्वस्व के निधान मित्र के पास उत्तर मथुरा में बधाई भेजी। मित्र के उत्सव से अलंकृत वचनों को सुनकर वह भी अत्यन्त खुश हुआ। राजा की तरह उसकी खुशी की महान सुरभि से शीघ्र ही वह आनन्द रस में डूब गया। फिर उसने विचार किया-मुझे निश्चय ही देवता आदि के अनुभाव से पुत्री की प्राप्ति हो, ताकि हम अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर सकें। __कुछ काल व्यतीत हो जाने के बाद दिव्यरूप धारी कन्या ने उसके यहाँ जन्म लिया। उसने भी पुत्र-जन्म के उत्सव की तरह महान उत्सव करवाया। फिर उसने अपने मित्र अशोक दत्त को दक्षिण-मथुरा में पुत्री जन्म की बधाई भेजी। उसने भी यह बधाई सुनकर मन में प्रसन्न होते हुए विचार किया कि अब हमारा चिर-चिन्तित पुत्रपुत्री विवाह का मनोरथ सिद्ध होगा। इस प्रकार अपनी-अपने संतानो के आरम्भ-संरम्भ आदि का विचार करते हुए खुशी-खुशी में उन दोनों ने ५-६ वर्ष निकाल दिये। इन दोनों का आपस में विवाह करेंगे-इस प्रकार का निर्णय करके दोनों द्वारा संपूर्ण कृत्य कर लिया गया। इधर कुछ ही दिनों बाद पुत्र वाले श्रेष्ठि को अकाल में ही काल के दूत के समान दारुण ज्वर हुआ। अच्छे जानकार वैद्यों द्वारा आदरपूर्वक प्रतिकार करने पर भी वह ज्वर प्रलय की अग्नि की तरह वृद्धि को प्राप्त हुआ। अपना 124
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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