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शिवकुमार की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
इच्छा से अर्द्धमंडित नवोढ़ा का स्मरण करते हुए भ्राता मुनि की अनुमति की वांछा करते हुए उपायपूर्वक कहा- हे भाई! अपने कुल की सीमा की तरह आपके साथ कभी भी इस सीमा का उल्लंघन नहीं किया। इस आम के वन में बहुत समय तक हमने साथ-साथ क्रीड़ा की है। पर अपनी पीठ की तरह इस वन के पीछे का भाग मैंने कभी नहीं देखा । हे भ्रात! यह मार्ग तो मेरे लिए सर्वथा नवीन है । मैं तो इतने दिन तक तो कूप मण्डूक की तरह अपने गाँव में ही बैठा रहा । इस तरफ कभी आया ही नहीं ।
अपने गुरु के पास ले जाने के लिए भवदत्त ने भी बच्चे की तरह उसको बचपन के सुखादि की बातों में उलझाये रखा। उन्होंने कहा - हे भाई! इस संसार रूपी पिंजरे में पथिको के तरह लगातर घूमते हुए भव्यो के लिए यहाँ अपूर्व कुछ भी नहीं है। इस संपूर्ण लोक का कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ इस जीवात्मा ने जन्म-मरण न किया हो। इस प्रकार की बातें करते हुए उन साधु के साथ उनके भाई ने शीघ्र ही गाँव को पार कर लिया। किसी ने ठीक ही कहा है
विनोदो ह्यध्वलङ्घकः ।
विनोद ही विनोद में रास्ता कट जाता है।
तब नव- दुल्हे के वेश वाले छोटे भाई के साथ मुनि को आया हुआ देखकर क्षुल्लक मुनि परस्पर बातें करने लगे। निश्चय ही भवदत्त मुनि अपने अनुज को दीक्षा दिलाने के लिए ले आये हैं। कहा भी है
सत्यसन्धो महामुनिः ।
महामुनि सत्य - प्रतिज्ञ होते है।
वे अपनी प्रतिज्ञा को सत्य साबित करके ही छोड़ते हैं। गुरु ने भी उसको देखकर कहा- भवदत्त ! यह कौन है? उन्होंने कहा-यह मेरा अनुज है। दीक्षा लेने के लिए यहाँ आया है। आचार्य ने आश्चर्यपूर्वक भवदेव से पूछाहे भद्र! क्या व्रत स्वीकार करना चाहते हो? यह सुनकर भवदेव विचार करने लगा उस तरफ मेरी प्राणप्रिया नवयुवती नवोढ़ा वह बाला है और इधर मेरे ज्येष्ठ भ्राता का अनुल्लंघनीय वचन है। एक तरफ नवविवाहिता प्रेयसी का महावियोग है, तो दूसरी तरफ भाई की लघुता होगी। तो फिर मेरे द्वारा क्या किया जाना श्रेय है ? इस प्रकार विचार करके उसने मन में निश्चित किया किं साधुओं के बीच भाई के वचन मिथ्या न हो जाय, अतः कहा- हाँ ! मैं साधु बनूँगा। तब आचार्य ने उसी समय भवदेव को दीक्षा देकर सपरिवार वहाँ से विहार कर दिया। क्योंकिस्थायिता यतिनां न यत् ।
मुनि कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहते।
नये मुनि को सम्पूर्ण साध्वाचार सिखाया गया। भाई के अनुरोध के कारण उसने द्रव्य रूप से ही व्रत को धारण किया। भावरूप से तो वह सर्व क्रियाओं में शून्यमनवाला होकर एक मात्र अर्द्ध मण्डित प्रेयसी में ही अनुरक्त
मन वाला था।
एक दिन भवदेव मुनि ने पढ़ते हुए दूसरो के मुख से एक शास्त्र वाक्य सुना
न सा महं नो वि अहं पि तीसे ।
उसके अर्थ को जान कर मुनि ने अपने मन में विचार किया कि यह वाक्य सत्य नहीं है। क्योंकि " वह मेरी है और मैं उसका हूँ" अतः यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि " महं सा अहयंपि तीसे"। इस प्रकार जोर-जोर 'बोलने लगा। तब समस्त साधुओं ने उसे कहा- इस प्रकार मिथ्या भाषण मत करो। तब वह मन ही मन इस प्रकार रटन करने लगा। इस प्रकार मन के निजी संकल्प से उसी वाक्य को शुद्ध मानते हुए सभी क्रियाएँ करते हुए भी उस वाक्य को उसी प्रकार बोलता ।
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