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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् शिवकुमार की कथा आये। आलोचना करके भ्राता का सारा वृतान्त यथातथ्य बतलाया। वह वृतान्त सुनकर भवदत्त मुनि ने हंसते हुए कहा - अहो | तुम्हारे भाई का जो स्नेह है वह अन्य किसी का नहीं है, जो कि चिर काल बाद अतिथि की तरह आये हुए सहोदर बड़े भाई के पीछे भी नहीं आया, बल्कि नव विवाहित पत्नी के मोह के रंग में रंजित हो गया। तत्काल कर लग्न की हुई सर्पिणी के समान स्त्री के राग रूपी विष का आहार करनेवाला बुद्धिमान तुम्हारा भाई ही हो सकता है। उन मुनि ने भी कहा- हे भवदत्त मुनि! मैं तुम्हारे पाण्डित्य तथा तुम्हारा भ्रातृप्रेम तभी जानूँगा, जब तुम अपने भाई को दीक्षा दिलाओगे। भवदत्त मुनि ने भी कहा- ठीक है। ज्यादा देर नहीं है । उस तरफ अगर गुरुदेव का पधारना हुआ तो तुम सब देखोगे । कालान्तर में विहार करते हुए गुरु महाराज भवदत्त मुनि की जन्मभूमि की ओर पधारे। कहा भी गया हैवायोरिव मुनीनां हि कदाचिद् कुत्रचिद् गतिः । वायु की तरह मुनिजन कभी भी कहीं भी पहुँच सकते हैं। तब भवदत्त मुनि ने गुरु से कहा- प्रभो! आपकी आज्ञा हो, तो अपने पारिवारिक जनों को देखने की इच्छा है। भवदत्त मुनि गीतार्थ थे, अतः उन्हें अकेले ही जाने की अनुमति दे दी । क्यों न हो सिंहस्यापि सहायः किं जायते जातु कुत्रचित् । क्या सिंह को भी कभी सहायता की जरुरत होती है ? अपनी प्रतीज्ञा का निर्वाह करने के लिए वे मुनि प्रवर भवदत्त सुग्राम में अपने परिजनों के आवास स्थान पर गये। भवदेव का विवाह उसी समय नागदत्त तथा वासुकी की कन्या नागिला के साथ हुआ था । वर्षा होने पर जैसे मयूर प्रसन्नता से नाच उठता है, वैसे ही भवदत्त महामुनि को आया देखकर सभी बाँधव प्रसन्न हुए। फिर आनंदपूर्वक उन मुनि के पाद-पभों में अभिवन्दना करके भ्रमरों के समूह की तरह अपना मस्तक उनके चरणों में रखकर कहा- हे मुने! आज आपके घर में इसका अर्थात् भवदेव का चूड़ा - महोत्सव [ विवाह ] है । हमें इस मोके पर भी सुकृत का अर्जन करने के लिए आपकी सेवाभक्ति प्राप्त हो गयी है। भवदत्त मुनि ने कहा-इस समय सभी विवाह के उत्सव में व्यस्त है। अतः इस समय तो मैं जाता हूँ। किसी अन्य समय में आऊँगा । ऐसा कहकर वे जाने लगे, तो परिजनों ने दोष वर्जित खण्ड - खाद्य आहार आदि के द्वारा प्रतिलाभ प्राप्त किया। उस समय कुलाचार के कारण भवदेव स्वयं अपनी नवोढ़ा के गालों पर श्रृंगार आदि का मण्डल कर रहा था। जब उसने भवदत्त मुनि का आगमन सुना तो उत्कण्ठित होते हुए जैसे गुरु के बुलाने पर शिष्य तुरन्त जाता है वैसे ही भवदेव अपनी नवोढ़ा को वैसे ही छोड़कर सहसा उठ खड़ा हुआ। उन बोलने वाले लोगों द्वारा उसे मना किया गया- मत जाओ ! अर्द्ध मण्डित बाला को छोड़कर क्यों जाते हो? समान वय वाले मित्रों ने भी उसे बार-बार कहा - रति के समान हमारी छोटी बहन को छोड़कर कहाँ जाते हो ? तो उसने जाते-जाते उत्तर दिया- चिरकाल के पश्चाद् मेरे बड़े भ्राता मुनि आये हैं। अतः अपने सहोदर भाई को वन्दना करके वापस आता हूँ। इस प्रकार वर्षा की बूँदों के समान उछलती हुई हर्ष कल्लोलों के साथ भ्राता के पास आकर स्नेहपूर्वक भक्ति से उन्हें वन्दना की। उन्होंने भी उससे बातें करते हुए घी का पात्र उसे पकड़ा दिया। मानो व्रत देने की इच्छा से उन्होंने एक स्वांग रचा हो । कृत कृत्य पूर्वक साधु अपने घर से निकले। सभी स्वजन भी उनके पीछे-पीछे आये। मुनि पाप भीरु होने से किसी को भी लौटने के लिए नहीं कहते। अतः सभी जन धीरेधीरे मुनि को वंदन कर-कर के लौट गये । भवदेव ने मन में सोचा- सभी जन तो लोट गये पर मैं अपने बन्धु द्वारा छोड़े बिना कैसे जाऊँ? लोटने की 118
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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