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शिवकुमार की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् पर राजा ने उसके अनुरूप राजकन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। तारों के साथ चन्द्रमा की तरह, गोपियों के साथ कृष्ण की तरह तथा अप्सराओं के साथ इन्द्र की तरह वह उनके साथ रमण करने लगा।
काफी समय इसी तरह बीत गया। फिर एक दिन सिद्धान्त अमृत के सागर सागरदत्त नामके ऋषि वहाँ पधारे।
वे विद्वद्वर्य मुनि नगर के बाहर लक्ष्मीनन्दन नाम के उद्यान में ठहरे। तप में लीन रहते हुए उन्होंने मासखमण तप की आराधना की। कामसमृद्ध नाम के सार्थपति ने प्रासुक अन्नादि के द्वारा भक्तिपूर्वक पारणा करवाया। महान पात्रदान के प्रभाव से उसके घर में पुष्पवृष्टि के साथ स्वर्ण-रत्न आदि की भी वृष्टि हुई। सभी नागरिक जन उसको देखने के लिए वहाँ इकट्ठे हो गये। लोगों से उस आश्चर्य को सुनकर शिवकुमार भी वहाँ आया। तप का अद्भूत माहात्म्य देखकर उसके नेत्र उत्फुल्ल रह गये। पूर्व भव के स्नेह के वश से मुनि को देखते ही वह रोमांचित हो गया। भक्तिपूर्वक शिवकुमार ने मुनि को वन्दना की और उनके तप की प्रशंसा की। सार्थवाह को पात्र-दान-फल की बधाई दी। महामुनि पारणे के लिए उद्यान में पधार गये तथा सभी जन अपने-अपने स्थान पर चले गये। शिव भी राजभवन को लौट गया। पारणे के बाद तप से आकर्षित नागरिक पुनः मुनि की उपासना करने आये, शिवकुमार भी आया। स्नेह से भाव-विह्वल होकर शिव ने उन मुनि को प्रणाम किया। फिर उनके अन्तेवासी की तरह भक्तिपूर्वक होकर उनके एकदम पास बैठ गया। तब श्रुत के सागर मुनि सागरदत्त ने शिव को धर्म लाभ आशिष देकर धर्मदेशना दी। उन नियोगी मुनिराज ने सिद्ध के आदेश की तरह शीघ्र ही दुष्टों के समान संपूर्ण कषाय-विषय आदि को विवेचित करके संसार की असारता आदि को पदों में उसके सामने रखा। शिव ने पूछा-प्रभों! जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही आपके दर्शन से मुझमें स्नेह की वृद्धि होती है। इसका क्या कारण है?
तब अवधिज्ञान के प्रयोग से सागरदत्त मुनि ने सब कुछ जानकर उसके पूर्वजन्म के संबंध को कहना शुरु कर दिया। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मगध नामका देश था। वहाँ चमकती लक्ष्मी, आरामों, उद्यानों, लताओं से युक्त सुग्राम नामका गाँव था। उस गाँव में शिखर रूप आर्जव नामका कुलपुत्रक था। आकाश की तारिका मानो पृथ्वी पर आ गयी हो, ऐसी रेवती नामकी उसकी पत्नी थी। उन दोनों के अतिस्निग्ध दो पुत्र राम व कृष्ण के समान थे। बड़े पुत्र का नाम भवदत्त तथा छोटे पुत्र का नाम भवदेव था। एक बार उस गाँव में बहुश्रुत आचार्य सुस्थित पधारें। ग्राम के लोग वन्दना करने गये, तो मुनि ने उन्हें धर्मदेशना दी- जीवधारियों को चार अंग परम दुर्लभ है-मनुष्य जन्म, वीतराग वाणी का श्रवण, जिन वचनों में आस्था तथा संयम में पराक्रम। यह उपदेश सुनकर भवदत्त उनके पास वैराग्यवंत हो गया। युवा होते हुए भी अन्तर-शत्रुओं को जीतकर चारित्र राज्य प्राप्त किया। गुरु के साथ विहार करते हुए तथा श्रुत का अध्ययन करते हुए क्रमपूर्वक उन-उन गुणों के द्वारा गुरु की छाया के समान बन गया।
उनके गच्छ में किसी एक साधु ने गुरु को कहा-प्रभो! आपकी अनुज्ञा हो, तो अपने गाँव जाकर अपने स्वजनों से मिलना चाहता हूँ जिससे मेरा स्नेहित अच्छा सा छोटा भाई मुझे देखकर कदाचित संयम ग्रहण कर ले। तब गुरु ने कुछ गीतार्थ साधुओं को उस मुनि के साथ जाने का आदेश दिया। मानो चक्री सेनापति व बल के साथ बाहरी खण्डों को जीतने के लिए निकला हो। तब वह मुनि अपने पिता के गाँव में जाकर पितृगृह में प्रवेश किया। वहाँ मुनि ने अपने छोटे भाई के विवाह हेतु हो रहे अद्भूत संरम्भ आरम्भ आदि को देखा। विवाह में गाद रूप से आसक्त अपने अनुज को उच्च स्वर में बुलाया, पर काम के बंधन में जकड़े हुए के समान उसने कुछ भी स्वागत नहीं किया। व्रत ग्रहण करना तो दूर रहा, उस नवोदा में मोदित बुद्धि वाले उस अनुज ने अपने अग्रज मुनि को आया देखकर उन्हें बातों आदि से भी संतुष्ट नहीं किया। पारिवारिक जनों द्वारा अलक्ष्यीभूत वे मुनि लौटकर गुरु के पास
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