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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् शिवकुमार की कथा काफी समय बाद अपना अंतिम आयुष्य जानकर भवदत्त मुनि ने अनशन करके प्रकृष्ट समाधि द्वारा दिव्य, दुर्द्धर ऋद्धि को प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में देवत्व पद को पाया। भवदेव ने भवदत्त के देवलोक गमन के बाद विचार किया कि इतने समय तक तो मैं भाई के उपरोध (अनुरोध) से व्रती अवस्था में था । पर अब इस क्लेशकारी व्रत से मुझे क्या लेना देना है? पक्षी की तरह बंधन मुक्त मैं अब कहीं भी जा सकता हूँ। उस अर्द्धमण्डित छोड़ी हुई बाला को जाकर संभालता हूँ। वह काम-निधान उपद्रव युक्त मेरी नवोदा अब किस प्रकार होगी? कामदेव द्वारा त्यक्त रति तथा इन्द्ररहित शचि की तरह वह बिचारी अकेली मेरे बिना जीने में कैसे समर्थ हुई होगी? बिना बादल की बिजली तथा विष्णु से रहित लक्ष्मी की तरह उसने किस तरह इतना काल बिताया होगा? उस लावण्य की तरंगिणी को अगर मैं जीवित पाऊँगा, तो उसके व मेरे सारे चिन्तित मनोरथ पूर्ण करुँगा । इस प्रकार तीव्र मोह के उदय से विचार करते हुए उसका सम्यक्त्व बोध रूप रत्न गलित हो गया। विवेक पलायन हो गया । कुल का अभिमान नष्ट हो गया । शील उससे दूर हो गया । धर्मोपदेश नष्ट हो गया। स्वीकृत व्रत - मार्ग को वह भूल गया। अब उसे अपने सामने वही - वही दिखायी देने लगी। वही उसकी दृष्टि के सामने झूलने लगी। उसके अन्दर-बाहर, ऊपर नीचे, सब ओर वही वही दिखायी दे रही थी । ज्यादा क्या कहा जाय ? उसके लिए सारा जगत ही नागिलामय हो गया था। उसके इंगित आदि को जानकर आचार्य ने उसे बोध कराया। सौहार्द व अनुकम्पा से अन्य साधुओं ने उसे शिक्षा दी। पर कर्मगति से जड़ीभूत होकर उनके वचनों का अनादर करते हुए भवदेव स्मृति विहीन हाथी की तरह वहाँ से निकल गया। मनोरथों के रथ पर आरुढ़ होकर वह कुछ ही क्षणों में अपने गाँव पहुँच गया। वहाँ बाहरी चैत्य में क्षणभर रुककर उसने जिनेश्वर - बिम्ब को नमन किया । ब्राह्मणी तथा उसके पुत्र के साथ नागिला श्रेष्ठ माला लेकर उस चैत्य में आयी और मुनि को देखकर साधुबुद्धि से नमन किया। भवदेव ने उसे एक तरफ ले जाकर उत्कण्ठित होते हुए पूछा- हे कुशले ! क्या यहाँ आर्जव व रेवती कुशल है ? उसने कहा- उन दोनों का तो काफी समय पहले ही निधन हो गया। वे दोनों कुशल कर्मी परलोक में भी कुशलपूर्वक गये। सूर्यास्त के समय मुरझाये हुए कमल के समान उसका मुख मुरझा गया । पुनः उसने पूछा - नागिला नाम की कोई स्त्री है या नहीं? यह सुनकर उसने मन में विचार किया कि निश्चय ही यह मेरे पति भवदेव है । इनके वचनों से ये भग्न व्रत-परिणामी प्रतीत होते हैं। इन्हीं से पूछती हूँ। देखती हूँ आगे ये क्या-क्या निवेदन करते हैं, फिर अनुमान से इन महामुनि को बोधित करुँगी । इस प्रकार विचार करके उसने कहा- हे तपोधन! वह आपकी कौन है अथवा आप उसके क्या लगते हैं? उन्होंने आकर्षणपूर्वक कहा- वह नागिला मेरी प्राणप्रिया है। मैं आर्जव व रेवती का पुत्र तथा भवदत्त का अनुज भवदेव हूँ। अर्द्ध मण्डित नागिला को छोड़कर बन्धु मुनि के पीछे-पीछे जाते हुए उनके अनुरोध से मैंने व्रत अंगीकार कर लिया । अब भ्राता मुनि का स्वर्गवास हो जाने पर मैं निर्मुक्त हूँ। मातापिता व नागिला के स्नेह के कारण मैं यहाँ आया हूँ। अतः मुझे बताओं कि वह नाजुक, दीप्रिमती कुशल नागिला मेरे आने की बात कभी करती है या नहीं? उसने कहा- भद्र! आपको संयम लिया हुआ जानकर उसने भी साध्वियों के संसर्ग से अपवर्ग देने वाले मार्ग को स्वीकार कर लिया है। शुद्ध सम्यक्त्व को मूल से युक्त श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये हैं। धर्मशास्त्रों को पढ़ते हुए वह सर्वदा तप में लीन रहती है। उसने यावत्- जीवन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया है। घर में रहते हुए भी वह इतने काल से धर्मानुष्ठान में लीन है। द्रव्य-स्तव करके भावस्तव करने की इच्छा से अब वह साध्वियों की सन्निधि में व्रत स्वीकार करने की इच्छुक है । भ्राता के अनुरोध से आपने चिरकाल तक व्रत का पालन किया है, तो सन्मार्ग देखकर भी अब क्या आप कायरों के पथ पर जा रहे हैं? हे सौभाग्यशाली! तुषार बिंदु की उपमा वाले इन विषयों के लिए क्यों कठिनाई से प्राप्त अमूल्य रत्नत्रय को छोड़ रहे 120
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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