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________________ सुदर्शन शेठ की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् की इस प्रकार की आज्ञा धर्म में विघ्न करनेवाली है। अतः दूसरों से राजा को निवेदन करवाने की अपेक्षा मैं स्वयं ही जाकर राजा को पूछता हूँ। इस प्रकार विचारकर राजा के समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया। बहुमूल्य रत्नों से भरा हुआ थाल उन्हें भेंटकर उनके सामने बैठ गया। चन्द्रमा की चाँदनी की तरह अपनी कृपा-दृष्टि से सुख बरसाते हुए राजा ने उसके आगमन का कारण पूछा। उसने भी कहा-क्षमापति! कल चातुर्मासिकी पर्व पक्खी का दिन है। मुझे धर्मकृत्य, चैत्य अर्चना आदि करनी है। लेकिन आपकी आज्ञा के कारण उसमें विघ्न होगा। अतः मैं क्या करूँ? आप आदेश दीजिए। राजा ने भी कहा-स्व-रूचि के अनुरूप निर्विघ्न श्रेय कार्य करो। तुम्हारे जैसे धर्मार्थी विरले ही होते हैं। फिर तुम जैसों के लिए मैं अन्तराय का कारण क्यों बनूँ? ___ तब सुदर्शन श्रेष्ठि राजा की आज्ञा लेकर हर्षित होता हुआ आनंद युक्त होकर शीघ्र ही अपने आवास को आया। दूसरे दिन प्रातः काल स्नान करके अर्हत्-अर्चनादि चैत्यालय में करके कर्म रोग की महा-औषधि रूप पौषधव्रत को किया। रात्रि में आत्मा रूपी उद्यान में योगीन्द्र की तरह निश्चल होकर बाहर कहीं कायोत्सर्ग में स्थिर हो गया। सुदर्शन का आलिंगन करने में अत्यधिक आकुल अभया महारानी भी शिरो-वेदना के बहाने से महल में ही रुक गयी। तब अवसर देखकर पण्डिता भी उस सुदर्शन को देखकर यक्ष प्रतिमा की तरह उसे पीठ पर उठाकर अंतःपुर में ले गयी। देवी के आगे रखकर कहा-देवी! यह सुदर्शन है। कामदेव के समान उसके मूर्तिमान रूप को देखकर अभया भी अत्यन्त प्रसन्न हुई। शीघ्र ही अति कामातुर होते हुए उन-उन कामसूत्र में वर्णित कारणों के द्वारा उसके मन को क्षोभित करना प्रारम्भ कर दिया। श्री वीर तीर्थंकर के मोक्ष रूपी अमर नारी के संगम की तरह सुदर्शन को वह अपने विकारों के उत्कर्ष द्वारा भी क्षुभित नहीं कर सकी। फिर उसने अपने मद के बल से सुदर्शन को क्षोभित करना प्रारंभ किया, पर कुछ भी नहीं हुआ। उसके इन कार्यों से लज्जित होते हुए रात्रि भी विलीन हो गयी। सम्पूर्ण रात्रि महादूःख सागर से उबरने में मेरी कलाएँ इस पुरुषोतम का पार न पा सकी। अतः मेरी ये सारी कलायें पाषाणवत् है। अब क्या किया जाये? कलावानपि याति स्म किल द्वीपान्तरं तदा । कलावान् चन्द्रमा भी दूसरे द्वीप को चला जाता है। पूरी रात्रि खेदित होने पर भी यह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। अतः इसको देखने की इच्छा से सूर्य पूर्व दिशा पर आरुढ़ हो गया है। निर्विघ्न होकर वह भी चाटु वचनों के द्वारा प्रयत्न करते हुए बोली-निष्ठुर होते हुए भी कम से कम मेरे वचनों से तो डरो। हे सुदर्शन! मेरी सर्वथा अवहेलना मत करो। तुम विशारद हो, फिर भी क्या तुम कुछ नहीं समझे? लोकोत्तर स्त्रियों में राग हो या द्वेष। चाहे कुछ भी हो। वे रागिणी बनकर प्राण दे देती हैं और द्वेषिणी बनकर प्राण हर भी लेती है। फिर भी कायोत्सर्ग में लीन सुदर्शन ने कुछ भी नहीं कहा। अखण्ड शील रूपी साम्राज्य का स्वामी मृत्यु से नहीं डरता। अभया ने सोचा-कोमल अथवा कठोर वाक्यों द्वारा भी यह मेरा नहीं हुआ। इस कारण से अब यह अपनी कर्कशता का फल पायगा। इस प्रकार विचार करके अभया ने स्वयं सूर्पणखा की तरह नखों से खरोंच-खरोंचकर अपनी देह को दुष्ट बुद्धि द्वारा रक्त से सड़ा लिया। हे उपपतियों! यहाँ कोई किसी भी तरह प्रविष्ट हो गया है। मेरे शील रत्न का हरण करना चाहता है। अतः दौड़ो! दौड़ो! यह सुनते ही सभी पहरेदार क्रोध से दुर्द्धर होकर दौड़े। कहाँ है-कहाँ है-इस प्रकार बोलते हुए ऊपर से नीचे के मध्यम खण्ड में आये। वहाँ सुदर्शन को देखकर उनके मुख विषाद से मलिन 103
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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