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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् सुदर्शन शेठ की कथा हो गये। उससे पूछा-यह क्या है? लेकिन वह कुछ नहीं बोला। । उधर राजा महा उद्यान में वसुधा तल को सुरभित करने वाले कौमुदी महोत्सव के आनन्द का अनुभव करके उसी समय महल में आये। उन पहरेदारों द्वारा सुदर्शन को उठाकर राजा के पास ले जाया गया। राजा उसे देखकर संभ्रमित होते हुए बोले-चन्द्रमा से कदाचित् अग्नि की वर्षा हो सकती है। अग्नि की ज्वाला कदाचित् हिम के समान शीतल हो सकती है। अमृत पीने से मृत्यु तथा जहर पीने से कदाचित् जीवन मिल सकता है। पर्वत भी गतिमान हो सकता है और वायु भी निश्चल हो सकती है। लेकिन सम्यग्दर्शन से शुद्धात्मा वाला, अपनी इन्द्रियों का निग्रही यह सुदर्शन निश्चय ही अपने शील को कलंकित नहीं कर सकता। इस प्रकार अपने पहरेदारों को कहकर राजा ने स्वयं ही उसको पूछा-हे महाभाग! हे भाग्यनिधे तुम बोलो। तुम्हें यहाँ कौन लेकर आया या फिर तुम स्वयं ही यहाँ आये हो? हे श्रेष्ठि! जो कुछ भी हुआ, वह सभी यथावत् कहो। मेरे द्वारा तुम्हें सर्वथा अभय है। सुदर्शन ने मन में विचार किया-अगर सत्य बोलता हूँ तो निश्चित ही भययुक्त धात्री, अभया तथा अंतःपुर के रक्षकों की मृत्यु होगी। अतः जीवदया धर्म को जाननेवाला मैं उज्ज्वल आत्मा अपने एक जीवन के लिए इन अनेक आत्माओं का संहार कैसे करूँ? इस प्रकार विचार करके सूर्योदय के साथ ही कायोत्सर्ग के पूर्ण हो जाने पर भी अपने देह के नाश से निर्भय होकर मौन धारणकर स्थित हो गया। इस उपसर्ग से निवृत्त होकर ही मैं कुछ बोलूंगा। अगर उपसर्ग से निवृत्त नहीं हुआ, तो मेरे सर्वथा मौन है-इस प्रकार उसने प्रतिज्ञा कर ली। उसके पास में रहे हुए अन्य लोगों ने कहा कि क्यों नहीं बोलते? अगर अपराध किया भी है, तो राजा ने तुम्हें अभय दान दे दिया है। फिर भी वह नहीं बोला, तो राजा ने उसका निग्रह करने का आदेश दिया। आरक्षक उसका निग्रह करने के लिए उसे बाहर ले गये। वह महामति अपने आपको भावनाओं से भावित करने लगा। अर्जितं यद्यदा येन तत्तदा लभते हि सः। जिसने जैसा अर्जित किया है, उसे वैसा ही लब्ध होता है। मृत्यु के उपस्थित होने पर जीव को कायर नहीं बनना चाहिए। आर्त-रौद्र ध्यान छोड़कर जीव को शुभ ध्यान से युक्त होना चाहिए। इधर सुदर्शन की पत्नी मनोरमा ने कहीं से भी पति के दुःख व उपसर्ग को जानकर दुःख से आर्त होते हुए भी उस सात्त्विका ने अरिहन्त अर्चना करके कायोत्सर्ग धारण कर लिया। पति को उपसर्ग-विमुक्त बनाने के लिए शासन देवता का स्मरण करने लगी। शीघ्र ही शासन देवता का आसन चलायमान हुआ। उपयोग से जानकर मनोरमा के पास आकर शासन देवता ने पछा-कहो। मैं क्या करूँ? उसने कहा-अगर मेरे पति निष्कलंक है. तो उनको पार लगाओ। उपसर्ग हटाकर शासन की शोभा बढाओ। शासन देवता ने कहा-स्वर्ण कदाचित् पैदा हुआ मलिन हो सकता है पर सद्-दर्शन से पवित्र सुदर्शन में ऐसी कोई बात नहीं है। __इस प्रकार कहकर देव ने शीघ्र ही वहाँ जाकर शूली के स्थान पर रत्नज्योति से युक्त सूर्य के समान तेजस्वी सिंहासन की रचना की। आरक्षकों द्वारा तलवार आदि से जो घाव उसके शरीर पर किये गये थे, वे सभी घाव हार, केयूर आदि अलंकारों में बदल गये। तब इन्द्र की तरह उसको देखकर लोगों ने विशिष्ट अलंकृति की। धर्मो जयति नाऽधर्म । धर्म की जय होती है, अधर्म की नहींइस प्रकार कहते हुए लोगों ने उसे वन्दना की। सुदर्शन के प्रभाव को सुनकर राजा भी, जैसे हाथी के आगे 104
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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