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________________ कालकाचार्य की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् धूप की गर्मी से सूखते हुए सिकुड़ने लगा। उसका खिंचाव सिर पर बढ़ने लगा। मानो आँखें ही निकल जायगी। फिर भी महासत्त्वशाली मुनि चलाचल न होकर निश्चल रहे। ऐसा लगता था, मानो प्रशम भावों से ही वे प्रकृष्ट मतिमान मुनि निर्मित थे। तब शिर पर पट्टे के आवेष्टन का कसाव न सह सकने के कारण अक्षिगोलक बाहर निकल आये, उसी के साथ कर्मगोलक भी निकलने लगे। निष्कर्म होकर मुनि अन्तकृत केवली बन गये। डरपोक के समान शीघ्र ही सब कर्म छोड़कर लोकाग्र पर चढ़कर बैठ गये। उधर किसी कर्मकार द्वारा काष्ठ भार वहाँ रखा गया। उसके आघात से कोई शलाका क्रौंच पक्षी के गले में लगी। तब भय से आतुर क्रौंच पक्षी ने यवों का वमन कर दिया। भय से अंदर रहे हुए यव मुख से बाहर आ गये। अन्य क्या कहा जाय! उन यवों को देखकर उस सुनार को लोगों ने कहा-हा! हा! निरपराधी मुनि के प्राणों का तुमने हनन किया है। अन्य भी बहुत से लोग वहाँ आये। उन मुनि को विपन्न देखकर राजा को निवेदन किया। यह सब जानकर राजा अत्यन्त कुपित हुआ। उस सुनार का कुटुम्ब सहित वध करने का आदेश राजा ने दिया ताकि ऋषि की हत्या करने वाले इस पापी का कोई मुख न देखे। उस समय उसने अपने घर के द्वार बंधकर समग्र परिवार के साथ जीने के लिए उसने साधु वेष पहन लिया। तब राजपुरुषों ने उसका वह स्वरूप राजा को निवेदन किया। राजा ने भी उसको बुलाकर कहा-अरे! व्रत का सम्यक् पालन करना। अगर इसका त्यागकर पुनःवापस आ गये, तो लौह की कढ़ायी में क्वाथ की तरह पकाऊँगा। इस प्रकार कहकर उसे छोड़ दिया। और सुनार ने परिवार सहित चारित्र का पूर्ण पालन किया। जिस प्रकार मेतार्य मुनि ने अपने जीवन का बलिदान देकर क्रौंच पक्षी के जीवन की रक्षा की, उसी प्रकार सिद्धि रूपी लक्ष्मी का संगम चाहनेवालों के द्वारा जीव दया करनी चाहिए। इस प्रकार प्राणातिपात विरति व्रत में मेतार्य मुनि की कथा संपन्न हुई। || द्वितीय कालकाचार्य की कथा ।। जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में गंगा-सिन्धु नदी के मध्य भाग के मध्य खण्ड में सुविस्तार वाली अति सुन्दर तुरमणी नगरी थी। जिसमें रहते हुए लोगों का सुख स्वर्ग के सुख को भी नकारता था। संपूर्ण शत्रुओं को जीतनेवाला जितशत्र नामक राजा वहाँ का अधिपति था। उसके प्रताप का सर्य सदेव उदित होते हए नभोसर्य का तिरस्कार करता था। उस नगर में ब्राह्मण क्रियाओं की मूर्तरूपा भद्रा नामकी ब्राह्मणी थी। उसके दत्त नामका एक पुत्र हुआ। शराबी जुआरी, दम्भचर्यारूप कर्म में कुशल, शूर, क्रुर, वंश दूषक, कृतघ्नी स्वामीवंचक, वाचाल, ईर्ष्यालु, चतुर, दूसरों के मन की बात जाननेवाला, सभी विपरीत प्रक्रियाओं से भ्रष्ट वह ब्राह्मणीपुत्र दत्त नित्य राजा की सेवा करता था। वश में करनेवाले उन-उन वचनों द्वारा वश में हुए राजा ने उसे सेनापति बना दिया। महामात्य, महाध्यक्ष आदि को सभी को नीचा करके वह राज्य में राजा के समान कर्ता-हर्ता तथा वाहक बन गया। सम्पूर्ण व्यापारियों के स्थापन कर, उत्थापन-कर [क्रय-विक्रय के कर] आदि में भेद डालकर राज्य को ग्रस लिया। जितशत्रु राजा को शुक की तरह काष्ठ के पिंजरे में डाल दिया। फिर दिन-दिन बढ़ते हुए तेज को प्राप्तकर प्रतापवान होता हुआ उस राज्य में वह स्वयं राजा बन गया। उसने मांडलिक राजाओं तथा सीमान्त राजाओं को अंकित दासों की तरह अपने पाँवों के नीचे रखा। किसी के भी द्वारा अपराभूत तथा स्वयं दूसरों को पराभूत करते हुए वन के बीच सिंह की तरह वह अकेला ही राज्य करता था। बहुत अधिक महायज्ञ तथा पशुमेध-यज्ञ आदि करते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी को उसने बलि के पशुओं को बाँधने की तरह रोमांचित कर दिया। परशुराम के समान जमदग्नि ऋषि की तरह केवल ब्राह्मणो 93
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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