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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् मेतार्य महर्षि कथा राजा ने उस रत्नोत्सर्गी बकरे को लेकर अपने वास-घर के अन्दर बाँधा। धन कहाँ मान्य नहीं है? उस नीच पशु ने नरक के नमूने की तरह मरे हुए घोडे से भी अत्यधिक दुर्गन्धकारिणी विष्टा का उत्सर्जन किया। उस पशु को देवानुभाव जानकर राजा ने उसे वापस मेत को लोटा दिया। तब अभय ने मेत की पुनःपरीक्षा करने के लिए कहाराजा वैभारपर्वत पर प्रभु को वन्दन करने के लिए कष्टपूर्वक जाते हैं। अतःसुखपूर्वक जानेवाला रथमार्ग वहाँ बनवा दो। इस राजगृह नगर में स्वर्ण कोट करवाओ अपने पुत्र की शुद्धि के लिए देव द्वारा समुद्र यहाँ बुलवाओ। तब नहाकर शुद्ध हुए उसको राजा अपनी पुत्री देगा। मेत ने जाकर मेतार्य से यह सब कुछ कहा। मेतार्य ने भी देव द्वारा यह सारा कार्य करवा दिया। समुद्र की लहरों में उसने स्नान किया। तब राजा ने अपनी पुत्री तथा उन आठों वणिक सुताओं के साथ शीघ्र ही मेतार्य का विवाह करवाकर उसी श्रेष्ठि को अर्पित किया। तब देव के सान्निध्य से अत्यन्त विश्रुत उन-उन सुखों को इन्द्र की तरह मेतार्य ने बारह वर्षों तक अनुभव किया। देव फिर मेतार्य को प्रतिबोधित करने के लिए उसके पास आया। पर मेतार्य की स्त्रियों की प्रार्थना से उसे पुनःबारह वर्ष का समय दिया। अपनी पत्नियों के साथ चौवीस वर्ष बिताकर मेतार्य ने दीक्षा ग्रहण की तथा नौ पूवों का ज्ञान प्राप्त किया। एकलविहारी प्रतिमा को स्वीकार करके पृथ्वीमण्डल पर विचरते हुए तप के द्वारा कर्मों को खपाते हुए पुनःराजगृह नगरी में आया। वे मेतार्य ऋषि भिक्षा के लिए पर्यटन करते हुए मानो अशाता-वेदनीय कर्म से आकर्षित होने के समान स्वर्णकार के घर आये। वह स्वर्णकार श्रेणिक राजा के लिए जिन अर्चना में स्वस्तिक बनाने के लिए नित्य १०८ स्वर्णयव बनाया करता था। काल द्वारा घटित योजना के वशीभूत उन स्वर्णयवों को वैसे ही बाहर छोड़कर आहार लाने आदि कारणवश वह घर के भीतर गया। तभी वहाँ क्रौंच पक्षी आया। उसने उन स्वर्णयवों को धान्य यव मानकर भख से पीडित होने से उन्हें खा लिया। इतने में सुनार बाहर आया। यवों को नहीं देखकर व्याकुल हो गया, क्योंकि राजा की माध्याह्निकी पूजा का समय हो गया था। अगर समय पर स्वर्ण यवों को लेकर राजा के पास नहीं जाऊँगा, तो राजा मेरे टुकड़े-टुकड़े करवा देगा। उस समय वहाँ मेतार्य के अलावा अन्य कोई नहीं था। अतः सुनार ने उनसे पूछा कि यहाँ से स्वर्णयव कहाँ गये? सत्त्व व करुणा युक्त महामुनि ने विचार किया कि यदि मैं कहूँगा कि मैंने यव नहीं लिये, इस पक्षी ने चुग लिये हैं, तो यह अधम, निर्धर्मी, दयारहित सुनार यवों के लिए इस क्रौंच को मार डालेगा। अतः मुझे इस बिचारे का जीवन बचाना चाहिए। इस प्रकार मन में विचार करके मुनि ने मौन धारण कर लिया। मुनि के प्रत्युत्तर नहीं देने पर सुनार अत्यन्त कुपित हुआ। उस दुर्बुद्धि ने गीले चमड़े के पट्टे को उनके सिर पर संकिलष्ट भावों के साथ गाद बंधन से बाँध दिया। उन साधु ने अपने आपको कहा-हे मुनि! तुम किसी पर क्रोध मत करना। ये तो मोह राजा को जीतने में सहायक है। निर्वृति रूपी लक्ष्मी का वरण करने के लिए चलने वाले जीव! यह चमड़े का पट्टा तो मोतियों की माला रूप कलंगी है। हे बन्धु! तुमने पूर्व में जरुर ऐसे ही किन्हीं कर्मों का बंध किया होगा। जो दुःख को स्वयं ग्रहण करता है, वही दुख से मुक्त करता है। और भी, जीव किसके द्वारा उपकारी है? तुम यह नहीं कहोगे कि पक्षी ने चुग लिये हैं। क्रौंच के प्राणों के परित्राण के लिए अपने प्राणों को त्याग देना। नरक मार्ग की ओर ले जानेवाले आर्त व रौद्र नामक अपध्यानों को अथवा विक्रियाओं को मानस में जरा भी धारण मत करना। धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान रूपी शुभ ध्यान में आगे बढ़कर कर्मों के इस महा उदय को जीतकर कर्मों की दासता को जीतना है। ___ इस प्रकार मुनि के ध्यान में स्थित रहते हुए भी उस दुरात्मा ने कहा-बताओ! यव किसने लिए? अगर नहीं बताओगे, तो अभी मारे जाओगे। ध्यान में लीन मुनि ने सुनते हुए भी नहीं सुना। धर्म ध्यान से आगे बढ़ते हुए शुक्ल ध्यान में आरुद हो गये। मुनि के नहीं बोलते पर परम अधार्मिक रूप से मुनि के सिर पर वेष्टित आद्र पट्टा 92
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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